चाहे बात व्यक्तिगत हो या फिर समाज की, प्रश्नों के उत्तर नहीं ढुंढता तो इंसान गुफा युग में ही रहता या शायद और पीछे अनस्तित्व की ओर चला जाता। झारखंड में सबसे बड़ा और मुश्किल सवाल क्या है ? यही ना कि जनता दस साल से झारखंड में राज्य गठन के अच्छे नतीजों का इंतजार कर रही है और स्थिति बद से बदतर क्यों होती जा रही है ? नए राज्य के औचित्य पर लगा ये प्रश्नचिह्न दस साल से पलता-बढ़ता और मुश्किल होता आ रहा है।
Saturday, December 4, 2010
Friday, October 1, 2010
अयोध्या विवाद - एक ग्रंथि
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अयोध्या |
आधुनिक राष्ट्रराज्य के तौर पर भारत की राजव्यवस्था और धर्म के संबंध की परिभाषा अगर नागरिक तय करेंगे तो देश को सांप्रदायिकता की जटिल व्याधि से मुक्ति मिलेगी। इसके लिए अयोध्या जैसी ग्रंथियों की छोटी-बड़ी शल्य चिकित्सा ज़रूरी है। चिकित्सा शास्त्र का सामान्य सिद्धांत है - शल्य चिकित्सा से पहले और बाद में रक्तचाप सामान्य रहा तो व्याधि से राहत मिलेगी, असामान्य हुआ तो प्रक्रिया घातक साबित होगी। और शल्य-कार्य विशेषज्ञ के हाथों होना चाहिए- जैसे कि विवाद की व्याधि में न्यायाधिकरण, ना कि कोई स्वयंभू ध्वजाधारी। 30 सितंबर को भय के बावजूद राष्ट्र का रक्तचाप सामान्य रहा, और न्यायाधीशों के काम से राहत मिली। तीन महीने आराम करने का चिट्ठा तो न्यायाधीशों ने ही लिख दिया है। फिर प्रक्रिया आगे बढ़ाइये।
Wednesday, September 29, 2010
बिहार शायनिंग-नीतीश का फील गुड
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अबकी बारी, कौन बिहारी |
2004 के आम चुनावों में अटल जी के प्रधानमंत्रीत्व और नेतृत्व में, एनडीए इंडिया शायनिंग कैंपेन पर सवार होकर मैदान में उतरा और औंधे मुंह गिरा। भले उसकी यादें धूमिल हो गईं हों, लेकिन भारत के चुनावी इतिहास में ये एक ऐसी घटना थी, जिसने सेफोलॉजिस्ट बिरादरी को बगले झांकने पर मजबूर कर दिया था। चुनावी विश्लेषण के महापंडितों ने भी नहीं सोचा था कि देश के सर्वाधिक लोकप्रिय प्रधानमंत्रियों में से एक, अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाले एनडीए कि नियति में ऐसी दुर्गति बदी है। इसका कोई संतोषजनक विश्लेषण आज तक सामने नहीं आया है। चुनावी अभियान में ‘शायनिंग’ शब्द का दोबारा इस्तेमाल नहीं हुआ है। बिहार में एनडीए गठबंधन ने भी शायनिंग शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है, मगर नीतीश के जनसंपर्क का भाव कमोबेश यही है - बिहार शायनिंग।
Friday, September 24, 2010
वाह जनाब
नीतीश और लालू के बीच तुकबंदी का मुकाबला हो रहा है, वो भी होली के मौके पर नहीं, चुनाव के माहौल में। सतही तौर पर ये एक दिलचस्प और मनोरंजक चुनावी समाचार हो सकता है, लेकिन गहराई में जाकर देखें तो बदलाव का एक खूबसूरत चेहरा सामने आता है। ज्यादा पीछे जाने की ज़रूरत नहीं, 2009 के लोकसभा चुनावों को याद करिए। प्रतिपक्षी के मर्म को साधकर बयानों के ऐसे-ऐसे तीर छोड़े गए थे कि लोकतंत्र की मर्यादा तार-तार हो गई। ऐसा देश भर में हुआ था, लेकिन बिहार में तो राबड़ी देवी ने नीतीश-ललन के व्यक्तिगत रिश्तों को जनसभा में ला खड़ा किया था।
Thursday, September 2, 2010
'कृस्न भगवान, साल भर नीके-सुखे पार लगावस'
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जय कन्हैया लाल की |
Tuesday, August 10, 2010
लौण्डे का नया अवतार : मुन्नी
'लौंडा बदनाम हुआ नसीबन तेरे लिए' - भोजपुरी और उससे मिलती-जुलती बोलियों में प्रचलित ये गीत हिन्दी भारत की गलियों में न जाने कब से थिरक रहा है। मानव मन के वर्जित प्रदेशों में ताक-झांक करता ये गीत प्रचलन में देश-काल की सीमा लांघता हुआ बॉलीवुड पहुंग गया तो हैरानी नहीं हुई, मज़ा आया। उम्दा रचना ज़रूरत के मुताबिक ढलने में दिक्कत नहीं करती, इसलिए 'लौंडा' 'मुन्नी' बन गया और 'नसीबन' 'डार्लिंग'। असल बात तो बदनामी के सेलीब्रेशन में है। देखिए पहले लौंडा नाचा, अब मुन्नी यानि मलाइका नाच रही है, साथ में नाच रहा है सलमान। अब देश भर के डिस्को थेक इसकी धुन पर नाचेंगे, पेज थ्री के मेहमान नाचेंगे। हो सकता है बिहार के चुनाव में कोई पार्टी इसकी पैरोडी बनाकर अपने कार्यकर्ताओं को नचाने लगे। कॉलर ट्यून बजेगी तो फोन करने वाला भी खड़ा-खड़ा ही सही मगर लचकेगा ज़रूर । दरअसल धुन इतनी लचकदार है कि नचाकर मानती है, उपर से बोल।
भोजपुरी प्रदेशों में शादी व्याह जैसे तमाम उत्सवों में नाच-गाने का प्रचलन रहा है। ये अलग बात है कि नाचने-गाने वाले पेशेवर लोग धीरे-धीरे हाशिए पर पहुंच गए लेकिन आज हम उनका संगीत एडॉप्ट कर रहे हैं। वहां नाचने-गाने का काम करते थे बाई जी और उनके बजनियां, या फिर किसी लौंडे की नाच-पार्टी।
'नसीबन तेरे लिए....'.....यहीं पर लगता कि तबलची डुग्गी फाड़ देगा। सारे लोग एक साथ कंधे मटकार शोर मचा देते। बाप महफिल में आगे बैठकर रुपया उड़ाता और बेटा पीछे छिपकर अंगोछा उछालता । मनमौजी छोकरे बीच में जाकर ठुमका प्रतियोगिता भी शुरू कर देते । गैसबत्ती की कमजोर रोशनी में इतना अंधेरा मौजूद था कि लुकाछिपी करते हुए नचनिया सबकी आंखे तर कर देता और गीत मन का वर्जित कोना भर देता । फिर आया जेनरेटर, रोशनी बढ़ी और शोर भी बढ़ा। जेनरेटर की आवाज़ को चापकर लाउडस्पीकर से जब हारमोनियम और बाई जी के मिलेजुले सुर एकसाथ निकलकर दौड़ते तो लगता कि खेत-बधार को सरसराते हुए नदी के उस पार जाकर बैठते होंगे। वो महफिल तब आम थी और खास भी। बड़े लोगों के यहां मिट्टी पर दरी बछी होती, उपर सामियाना तना हुआ होता। साधारण आदमी दुअरा-दलान पर नाच करवा लेते। मगर शहर से देहात की तरफ लपकती व्यावसायिक मनोरंजन की दुनिया ने इसे पेशे को खेदेड़ना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे भद्र समाज ने मुंह मोड़ लिया और फिर कैसेट-सीडी ने साधारण लोगों को भी इससे दूर कर दिया। परंपरा किसी तरह अब भी सांसे ले रही है, मगर ऐसा लगने लगा है कि दिन पूरे हो चुके हैं।
परंपराएं बनती-छूटती रहती हैं, लेकिन कला कभी मरती नहीं। वो रूप बदलकर नई जिन्दगी पा लेती है। नौटंकी की शैली वेश बदलकर जब-तब सामने आती रहती है। लौंडा भी मुन्नी बनकर माडर्न हो गया है। मगर चोर चोरी से जाएगा, हेराफेरी से नहीं। देखिए मार्डन होते ही इसने जेठ और भावज को नचा दिया। सलमान खान इस गीत में अपनी असल जिन्दगी की भावज मलाइका के ठुमकों पर मरा जा रहा है। अब आपके यहां भी शादी व्याह होगा तो डीजे पर बजेगा.....मैं झंडुबाम हुई डार्लिंग तेरे लिए......लेकिन जिन्होंने कभी सुन रखा है....उनके मन में गुंजेगा....लौंडा बदनाम हुआ नसीबन तेरे लिए।
Sunday, August 8, 2010
राजनीतिक मंच बिहार का
जिन्दगी ड्रामा है |
प्रभुनाथ सिंह ने लालू यादव से हाथ मिला लिया है। इस दोस्ती बहाने बिहार के दीर्घकालीन राजनीतिक परिदृश्य को समझने की कोशिश की जा सकती है। दो दशकों से बिहार में एक ही राजनीतिक स्कूल के लोग दो धड़े बांटकर पक्ष और विपक्ष की भूमिका निभा रहे हैं। इसलिए बिहार में वास्तविक परिवर्तन की धारा समान दिशा में अग्रसर है, इसे सामंतवादी मूल्यों पर आधारित सामाजिक परिवर्तन की धारा कहा जा सकता है। लालू यादव इसके अगुवा रहे हैं और बिहार के विकास के प्रति लालू में जो उपेक्षा का भाव था, उसके पीछे एक चैंपियन का दर्प था। सामाजिक व्यवस्था की खामियों को राजनीतिक परिणाम में बदलने वाले चैंपियन का घमंड तो टूट चुका है लेकिन आत्मविश्वास अभी कायम है। प्रभुनाथ सिंह से हाथ मिलाकर उसे और मजबूती हासिल होगी।
Monday, August 2, 2010
Saturday, July 31, 2010
ढलान पर हैं हम
प्रमोद महाजन की मौत से पहले राहुल महाजन को कितने लोग जानते थे और आज उसे कितने लोग जानते हैं ?
ये फर्क कैसे आया? क्या उसने पब्लिसिटी के लिए ड्रामा किया ? क्या उसने पब्लिसिटी के लिए ड्रग्स लिया? क्या वो पब्लिसिटी के लिए जेल गया? क्या पब्लिसिटी के लिए वो अपनी बीवियों को मारता है? क्या उसने पब्लिसिटी के लिए तलाक लिया ? बिग बॉस, स्वयंवर, छोटे उस्ताद और इमोशनल अत्याचार जैसे रियालिटी शो में उसे क्यों बुलाया जाता है ?
राहुल ने जवाब दिया है - नहीं चाहिए ऐसी पब्लिसिटी भइया...पब्लिसिटी को क्या मैं खाउंगा....पब्लिसिटी कोई एटीएम कार्ड है क्या...
Thursday, July 22, 2010
शायद,कोई देखने आ जाए!

"बाबू जी चढ़लन की ना" इन्हीं शब्दों के साथ शुरू होती थी हमारी मंगरॉंव यात्रा। "हां-हां!" करती हुई बिहार राज्य पथ परिवहन निगम की लाल पट्टियों वाली बस हज़ारीबाग डिपो के गेट नंबर दो की तरफ रेंगने लगती। फिर बरही,चौपारण और बाराचट्टी में रूकते-चालान लेते पहुंचती शेरघाटी। हमारे लिए यात्रा का खास आकर्षण हुआ करता था शेरघाटी के होटल का खाना- दाल-भात,आलू की भुजिया,सब्जी,प्याज और पापड़। 'होटल का खाना'- इतने में ही जो संतुष्टि मिलती थी उसे जायका किस मुंह से कहूं। फिर गाड़ी खुलती तो रफीगंग,औरंगाबाद के रास्ते डेहरी-ऑन-सोन तक जाती। वहां से दूसरी बस नासरीगंज तक। बड़का बाबूजी बारहो मास नासरीगंज आते थे।
Tuesday, July 20, 2010
रजमतिया के चिट्ठी

नेट पर मिली है मुझे रजमतिया की चिट्ठी। लगा जैसे पुराने प्रेम पत्रों वाला टिन का वो डब्बा मिल गया,जिसे पता नहीं कहां रखकर मैं भूल गया और जब याद आया तो ये भूल गया कि कहां रखा था। 'रजमतिया के चिट्ठी' एक भोजपुरी लोकगीत है। इसमें मुझे पूर्वांचल का रेखाचित्र दिखाई देता है, इसमें किसान के मजदूर में तब्दील होने की कहानी है। इसके बावजूद उसे और उसके परिवार को सिर्फ जीने भर की छूट मिली है। गरीबी की वजह से बेनूर लेकिन मर्यादा की वजह से गंभीर जिन्दगी ट्रेजेडी में कॉमेडी खोजती दिखाई देती है।
Sunday, July 18, 2010
'बिहारी' के बहाने
फेसबुक पर बिहार के विकास पर पोस्ट और टिप्पणियों के माध्यम से चर्चा के दौरान मिली एक टिप्पणी BIHAR MATLAB BIMAR, KARM AUR SOCH DONO SE, A STATE WHICH IS CANCER FOR THE COUNTRY.
लोकतंत्र है, अभिव्यक्ति की आज़ादी है। आजादी और उदंडता के बीच बड़ी बारीक सी विभाजन रेखा है, कभी -कभी लोग सीमा पार कर जाते हैं। लेकिन बिहार के प्रति इतनी कड़वाहट क्यों है ? यहां बहस का मुद्दा ये था कि नीतीश कुमार ने 'ऊंट के मुंह में जीरा' बराबर भी काम किया है या नहीं। बहस करनेवाले ज्यादातर लोग पत्रकार थे। नीतीश कुमार ने कुछ नहीं किया ये साबित करने के लिए पूरे राज्य को कोसना, कैंसर तक कह देना - आखिर इस मानसिकता के पीछे क्या है? बिहारियों के खिलाफ, ये एक तरह से 'पेटी के नीचे का प्रहार'( hitting below the belt) है। इसलिए बिहारी भड़क जाता है। क्या करे, या तो अपमान का कड़वा घूंट पी ले या फिर जुट जाए जूतम-पैजार(जुबानी या जिस्मानी) में। और असल बात पर किसी का ध्यान नहीं जाता।
लोकतंत्र है, अभिव्यक्ति की आज़ादी है। आजादी और उदंडता के बीच बड़ी बारीक सी विभाजन रेखा है, कभी -कभी लोग सीमा पार कर जाते हैं। लेकिन बिहार के प्रति इतनी कड़वाहट क्यों है ? यहां बहस का मुद्दा ये था कि नीतीश कुमार ने 'ऊंट के मुंह में जीरा' बराबर भी काम किया है या नहीं। बहस करनेवाले ज्यादातर लोग पत्रकार थे। नीतीश कुमार ने कुछ नहीं किया ये साबित करने के लिए पूरे राज्य को कोसना, कैंसर तक कह देना - आखिर इस मानसिकता के पीछे क्या है? बिहारियों के खिलाफ, ये एक तरह से 'पेटी के नीचे का प्रहार'( hitting below the belt) है। इसलिए बिहारी भड़क जाता है। क्या करे, या तो अपमान का कड़वा घूंट पी ले या फिर जुट जाए जूतम-पैजार(जुबानी या जिस्मानी) में। और असल बात पर किसी का ध्यान नहीं जाता।
Friday, July 16, 2010
इतना सन्नाटा क्यों है भाई !चैप्टर - 2

झारखंड बीजेपी क्या कर रही है? अर्जुन मुंडा कहां हैं? क्या राष्ट्रपति शासन लगते ही सब ठंडे हो गए? क्या इसके बाद फिर चुनाव नहीं होंगे? जेएमएम के साथ सरकार बनाने में तो बड़ी उतावली थी। अठारह सीटों से भी नीचे गिरने का इरादा है क्या? पिछले छे महीनों में बीजेपी ने जो चाल चरित्र चेहरा दिखाया है, उसमें करेक्शन की कोई गुंजाइश भी नहीं ढुंढी जा रही है। पिछले चुनाव में ये अनुमान लगाया जा रहा था कि बीजेपी अगर मजबूत नहीं भी हुई तो अपने पुराने पोजीशन को बरकरार रखेगी। लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा। ज्यादा जोगी मठ उजाड़ वाली कहावत चरितार्थ हुई
Wednesday, July 14, 2010
प्रतीकों से खेलते नीतीश

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को नरेन्द्र मोदी से परहेज है लेकिन आनंद मोहन से प्यार है। दोनों के राजनीतिक मायने हैं । नीतीश इन दोनों को राजनीतिक प्रतीकों के तौर पर इस्तेमाल करना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें विश्वास है कि जनता ऐसे प्रतीकों से प्रभावित होती है। सुशासन बाबू बड़ी ही चालाकी से एक प्रतीक पर हमला करके और दूसरे प्रतीक को फुसला करके दो बड़े वोट बैंकों में अपना शेयर बढ़ाना चाहते हैं और लगता नहीं कि इसमें उन्हें कोई खास दिक्कत आएगी।
Tuesday, July 13, 2010
इतना सन्नाटा क्यों है भाई !

Tuesday, July 6, 2010
सेलेब्रेटी नहीं नायक है माही
मैं क्रिकेट फैन नहीं हूं, मगर धोनी का फैन हूं, क्योंकि इसने कहीं ना कहीं मेरे निजी आत्मविश्वास को एक मजबूत आधार दिया है। इसने भय-भूख-भ्रष्टाचार के बीच छटपटा रहे झारखंड को एक अच्छी, बहुत अच्छी पहचान दिलाई है। इसने बड़े ही सीधे तरीके से ये साबित कर दिया कि बेहद साधारण पृष्ठभूमि और बिना किसी भगवान-बाप(गॉडफादर) के उपलब्धियों के आसमान पर सितारा बनकर चमका जा सकता है, बशर्ते कि आपके
Saturday, July 3, 2010
चोर चोर मौसेरे भाई
रजरप्पा में छिन्नमस्ता का मंदिर
रजरप्पा के छिन्नमस्तिका मंदिर में चोरी हो गई। चांदी का छत्र और मां के आभूषण ही नहीं, चोरों ने मूर्ति में लगी सोने की आंखें भी निकाल लीं। इतना ही नहीं मूर्ति को भी काफी नुकसान पहुंचाया गया है। सबकुछ रहते हुए भौतिक उन्नति को तरसते राज्य में देवी-देवता भी सुरक्षित नहीं हैं। कमाल की बात है कि इसका ध्यान तब आया है जब एक बड़ा नुकसान हुआ।
Tuesday, June 29, 2010
निराशा की लहरों में उमंग की तरंग
झारखंड में आमजन निराश है और खास लोग चाहते हैं कि ये माहौल बना रहे। दरअसल दस साल के इस राज्य में जो लोग उभरे हैं उनमें ज्यादातर में इस आत्मविश्वास की घोर कमी है कि उन्होंने जो हासिल किया है वो उसके लायक हैं। उन्हें लगता है कि वो निराशा के माहौल और मौकापरस्ती के हुनर की वजह से उभर पाए हैं। ऐसा लगना काफी हद तक स्वाभाविक है और ऐसे लोग झारखंड समाज के हर तबके के मौजूद हैं- राजनीति में, व्यवसाय में, सामाजिक क्षेत्र में, शिक्षा जगत में, यहां तक कि सिविल सेवा की कठिन बाधा लांघकर आने वाले नौकरशाह भी इस ग्रंथि से मुक्त नहीं हैं।
Thursday, June 24, 2010
प्रलय की तैयारी!
Tuesday, June 22, 2010
ढाई घर दाएं-बाएं-आगे-पीछे
घोड़ा ढाई घर की चाल चलता है-बीच के मोहरों को लांघकर। घोड़ा मारता तो एक बार में एक ही मोहरा है, मगर डराता एक साथ आठ को है। इसलिए घोड़े की अगली चाल समझ में नहीं आती,भेजा खराब हो जाता है।
नीतीश कुमार शुरू से ढाई घर चलते रहे हैं। लालू इसको थोड़ा दूसरे तरीके से समझाने की कोशिश करते हैं। लालू कहते हैं कि नीतीश के पेट में दांत हैं , यानि जब वो किसी को निवाला बनाते हैं तो कोई तकलीफ नहीं देते , बड़े आराम से निगलते हैं-बिना दांत गड़ाए फिर जब शिकार पेट में चला जाता है तो आराम से चबा जाते हैं।
Saturday, June 5, 2010
Thursday, June 3, 2010
इब्ने बतूता, बगल में जूता, पहने को करता है चुर्र
Tuesday, June 1, 2010
जागो झारखंड, नया सबेरा लाना है

Sunday, May 30, 2010
अनाथ नक्सलवाद का अपहरण
Friday, May 28, 2010
ऊंचाई पर पहुंचना आसान टिकना मुश्किल

मेरे एक मित्र(पंकज भूषण पाठक) ने फेसबुक पर लिखा है..."झारखण्ड में दिशोम गुरु के नाम से चर्चित शिबू सोरेन जिन्हें आदिवासी समाज में भगवान के रूप पूजा जाता है आज सत्ता-लोलुपता के पर्याय बने हुए है. किस्मत ने उन्हें तीन बार सीएम की कुर्सी पर बिठाया लेकिन सत्ता सुख़ कभी भोगने नही दिया.मौजूदा हालात में तमाम फजीहत और असम्भावना के बावजूद वो हैं की कुर्सी छोड़ने को तैयार नही. जनता की नजरो में आज वो एक मजाक बनते जा रहे हैं...कौन समझाए इन्हें?"
Wednesday, May 26, 2010
बाबू जी धीरे चलना

प्यार में संभलना थोड़ा मुश्किल होता है। और फिर ये तो कुर्सी का प्यार है। उस कुर्सी का जो साल 2003 से रुठी हुई है। इसलिए बाबूलाल मरांडी जी का मन मचल जाए तो हैरानी नहीं। इसलिए ज़रूरी है कि वो कुछ बातों का ध्यान रखें। ध्यान रखें की दिसंबर 2009 में उन्होंने बर्दाश्त कर लिया था। उस त्याग की भावना, या कहें मजबूरी की वजह से उनकी शख्सियत को जो उंचाई या जो वजन मिला था, उसे कहीं खो ना दें मरांडी।
Friday, May 21, 2010
चुनाव चुनाव चुनाव
Thursday, May 20, 2010
मीडिया-घटिया प्रोफेशनल्स भविष्य के लिए खतरनाक
Wednesday, May 19, 2010
सिर्फ मैनेजर या लीडर भी

अर्जुन मुंडा एक बार फिर से झारखंड की कुर्सी संभालने जा रहे हैं। बेमेल शादी में तलाक-तलाक का शोर मचाने के बाद फिलहाल समझौते का जो फार्मूला तय हुआ है उसके मुताबिक 28 महीनों के लिए उन्हें ताज मिलेगा। 28 महीनों में वो क्या गुल खिलाते हैं इसपर सबकी निगाहें होंगी। लेकिन मेरी निगाहें इस बात पर होंगी कि कौन-कौन उन्हें बीच रास्ते में गिराने की फिराक मे लगे हैं। सबसे पहले तो जेएमएम के अठारह में से कम से कम चार विधायक ऐसे हैं, जिन्हें एक बार फिर से कड़वा घूंट पीना होगा। साइमन मरांडी का मुखौटा पहनकर बैठे इन विधायकों की संख्या चार से ज्यादा भी हो सकती है। दूसरी तरफ से कांग्रेस खासकर प्रदीप बालमुचू इन लोगों को सह दे रहे होंगे। बाबूलाल मरांडी सरकार के हर कदम पर विधवा विलाप करेंगे। और सबसे बड़ी बात खुद भाजपा के अंदर भी अर्जुन मुंडा की टांग खींचने वालों की कोई कमी नहीं। इस बार अर्जुन मुंडा ने अपने विरोधियों को पटखनी दे दी तो वो सिर्फ इसलिए कि वर्तमान हालात में रांची-दिल्ली के मैनेजमेंट में उनसे ज्यादा कुशल और अनुभवी दूसरा कोई नहीं है। लेकिन चाहे हालात कैसे भी हों, मुंडा सरीखे नेता से जनता डिलीवरी की आशा रखेगी।
Monday, May 17, 2010
ज़रूरी है झारखंड में चुनाव

नेताओं(राजनेताओं) के व्यक्तिगत स्वार्थ को हटाकर देखा जाए तो पिछले चुनाव के बाद से लेकर अब तक न तो झारखंड की जनता ने कुछ हासिल किया ना ही राजनीतिक बिरादरी ने, और आगे भी कुछ हासिल होगा, ऐसा लगता नहीं है। उल्टा राजनीतिक बिरादरी अपनी साख खोती जा रही है। राज्य एक खतरनाक राजनीतिक शून्य की तरफ बढ़ रहा है। ऐसे में जनता की ज़रूरत भी है और जिम्मेदारी भी कि वो बीच बचाव करे। उसका एकमात्र ज़रिया है चुनाव – झारखंड में चुनाव ज़रूरी है।
Sunday, May 16, 2010
बालिका वधू

अक्षय तृतीया है.....सभी चैनलों पर एक सप्ताह से सोना बेचा जा रहा है......आज तो बाजार अपने चरम पर है....वैसे सोने का भाव भी चरम पर है.....लेकिन लगता है बालिका वधू की टीआरपी गिर गई है.....वर्ना क्या बात है कि इस बार अक्षय तृतीया पर भेड़ बकरियों की तरह ब्याह दी जानेवाली बालिका वधुओं की कोई चर्चा भी नहीं है.....क्या बाल विवाह वाकई रुक गया है.....क्या छत्तीसगढ़ के उस मंदिर में इस बार मेला नहीं लगा......क्या शारदा एक्ट आखिरकार प्रभावी हो गया है.......दिल्ली में हो रही बीस हजार शादियों की तो खूब चर्चा है.....चैनलों पर दिल्लीवालों के लिए चेतावनी भी है....घर से मत निकलना जाम में फंस जाओगे......बाराती नाचेंगे और आप गाड़ी की एसी खर्च करके इंतजार करोगे......लेकिन इस बात की चर्चा भी नहीं कि अक्षय तृतीया पर कितने अनपढ़ गरीब मां बाप अपनी बच्चियों की शादी कर रहे हैं...
Friday, May 14, 2010
सोचिए! फैसला लेने से पहले
Thursday, May 13, 2010
छे महीने का डिप्लोमा

छे महीने बाद घर में छुट्टियों का आनंद ले रहा हूं.....और गर्मी की छुट्टियां तो ना जाने कितने साल के बाद आई हैं मेरे जीवन में.....भविष्य की अनिश्चितता से डर नहीं लग रहा....क्योंकि शायद पहले भी भविष्य इतना ही अनिश्चित था.....बल्कि भविष्य को लेकर एक खुलापन सा महसूस हो रहा है.....वैसे भी जहां पूरे समाज और देश का भविष्य अनिश्चितता के आवरण से झांक रहा है......वहां मैं एक बिन्दू से ज्यादा शायद कुछ भी नहीं.....और ये बिन्दू अगर ढुंढना भी चाहूं तो क्या मिलेगा....वक्त का दरिया अपना रास्ता खुद बना लेता है..
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