Friday, May 28, 2010
ऊंचाई पर पहुंचना आसान टिकना मुश्किल
मेरे एक मित्र(पंकज भूषण पाठक) ने फेसबुक पर लिखा है..."झारखण्ड में दिशोम गुरु के नाम से चर्चित शिबू सोरेन जिन्हें आदिवासी समाज में भगवान के रूप पूजा जाता है आज सत्ता-लोलुपता के पर्याय बने हुए है. किस्मत ने उन्हें तीन बार सीएम की कुर्सी पर बिठाया लेकिन सत्ता सुख़ कभी भोगने नही दिया.मौजूदा हालात में तमाम फजीहत और असम्भावना के बावजूद वो हैं की कुर्सी छोड़ने को तैयार नही. जनता की नजरो में आज वो एक मजाक बनते जा रहे हैं...कौन समझाए इन्हें?"
पंकज को अगर अब भी लगता है कि शिबू सोरेन को समझने-समझाने की ज़रूरत है तो इसका मतलब साफ है - घोर विकल्पहीनता।
शिबू सोरेन ने लम्बा राजनीतिक सफर तय किया है। ये सच है कि आदिवासी समाज में उन्हें जितनी मान-प्रतिष्ठा मिली वो आजाद भारत में शायद किसी और को नहीं मिली। जाहिर है इसकी जायज वजह भी रही होगी। लेकिन इस मान प्रतिष्ठा के बल पर ऊंचाइयां छूने वाले इस राजनेता ने सिर्फ और सिर्फ स्वार्थ की खातिर बार-बार वो सब कुछ दाव पर लगा दिया जो वक्त ने इसे दिया था।
पिता की हत्या ने शिव चरण मांझी को ऐसी राह पर निकाल दिया कि वो एक क्रांतिकारी बन गया। वो शिबू सोरेन हो गया, गुरूजी कहलाने लगा। इस प्रक्रिया में जंगलों-पहाड़ों की खाक छान रहे शिबू सोरेन में सिर्फ आदिवासियों ने नहीं बल्कि उस वक्त के तमाम बुद्धिजीवियों ने भी बड़ी संभावनाएं देखी थीं। गरीबी,जहालत,शराब की लत और महाजनों के शोषण से त्रस्त आदिवासियों ने शिबू सोरेन को मसीहा मान लिया। समय और इतिहास के दुष्चक्र में फंसा हुआ समाज हमेशा किसी चमत्कार की उम्मीद में रहता है। ऐसे में अपने बीच का कोई आदमी क्रांति की बात भी करे तो देवता लगता है। मगर पीड़ा को समझना और पीड़ा को धारण करना एक बात होती है, उस पीड़ा से मुक्ति का रास्ता खोजना वो भी व्यवस्था में जगह बनाकर - इसके लिए जो विजन चाहिए, शिबू सोरेन उसके आस-पास भी नहीं थे। इसलिए उन्होंने अलग राज्य के आंदोलन में खुद को समाहित कर लिया।
दूसरों की पीड़ा इक्टठा करने के बाद अगर उसे सही रास्ता दिखाने की कुवत शिबू सोरेन में होती तो राज्य अलग होने से पहले ही वो अपने मुंह पर भ्रष्टाचार की कालिख नहीं मलते। भाजपा बीच रास्ते झारखंड की अवधारणा को हाइजैक नहीं कर पाती। याद रहे कि राज्य अलग होने से पूर्व के वर्षों में भाजपा का वनांचल अभियान झारखंड आंदोलन से कहीं ज्यादा प्रभावी था। छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड की उभरती आकांक्षाओं को भी भाजपा ने अवशोषित करने की कोशिश की। और अलग राज्य भी उस वक्त की राजनीतिक परिस्थितयों और केन्द्र की भाजपा सरकार की सुविधा के हिसाब से बना था। राज्य बनने के बाद जो किस्सा हुआ उसका लब्वोलुआव तो पंकज की निराशा में साफ है।
लेकिन तमाम विश्लेषण के बाद भी गुरूजी की नासमझी का सवाल जस का तस है। गुरूजी को नासमझ इसलिए कहा जाता है क्योंकि उनकी होशियारी का तर्क समझ में नहीं आता। दरअसल इनकी होशियारी इसलिए समझ नहीं आती क्योंकि जितने बड़े पैमाने पर इन्हें मान-प्रतिष्ठा और जनसमर्थन हासिल हुआ, उतने बड़े पैमाने इन्होंने ना खुद कुछ हासिल किया, ना अपनी जनता को कुछ दिया। ये उपेक्षा का दंश झेल रहे लोगों के विश्वास का न्यासी तो हुए, लेकिन लोकतंत्र के इस सबसे ताकतवर हथियार का इस्तेमाल इन्हें कभी समझ नहीं आया। रणनीतिक सोच का शिबू सोरेन से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है।
ऐसे में ये सवाल भी लाजिमी है कि जिन उम्मीदों ने शिव चरण मांझी को गुरू जी का दर्जा दिया, उनका क्या ?
लोकतंत्र में हाशिए पर धकेल दिए गए वर्गों के पास इसके सिवा और चारा भी क्या है कि अपने बीच से नायक ढुंढे और लायक-नालायक जो भी सामने दिखे उसके साथ लामबंद हो जाएं। ऐसा इसलिए है कि बाहर के समाज के प्रति उनका विश्वास बुरी तरह से ध्वस्त हो चुका है। लायक-नालायक देखे बिना जब नायक चुने जाएंगे तो जाहिर है क्रांति नहीं हो सकती। और क्रांति अगर हो भी जाए तो बात बनती नहीं दिखती। लेकिन इसका कोई हासिल नहीं ऐसी बात नहीं। वक्त का दरिया रूकता नहीं और अपने साथ बहुत कुछ बहाकर ले भी जाता है। ऐसे नायकों का छलावा भी बहकर निकल जाता है और वक्त की रोशनी से दूर बैठे समाज तक ये संदेश पहुंचा देता है कि दुनिया चमत्कार से नहीं चलती।
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