अजनबी की पहचान

Monday, July 18, 2016

साम्प्रदायिकता : भारत की मूलभूत कुंठा

साम्प्रदायिकता भारत की एक मूलभूत कुंठा है जो आम भारतीय मनोजगत पर अवसाद के बादलों की तरह हमेशा मंडराती रहती है। देश के जिस हिस्से पर बादल संघनित होकर बरसता है वहां बहस खड़ी हो जाती है, झगड़े हो जाते हैं, दंगे हो जाते हैं। विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक भारतीयता इस कुंठा के साथ जीने को अभिशप्त है किन्तु इसका दूसरा पहलु भी है।
बसुधैव कुटुम्बकम किसी धर्म विशेष की इजाद हो ही नहीं सकता। दरअसल, भारत ने धर्म और आध्यात्म का फर्क सबसे पहले समझा और शायद सिर्फ भारत ने ही यह फर्क समझा। जिसे हम सनातन धर्म कहते हैं उसके पीछे की आध्यात्मिकता अपने आप में तमाम प्रश्नों का उत्तर है। भारत ने धर्म के पर्दे से झांकते आध्यात्म को देखने की समझ बनाई है और यह दार्शनिकता आम भारतीय में जेहन न्यस्त है। दरअसल, एक आम भारतीय के लिए यही सहज जीवन शैली है। बुद्ध, महावीर, ईसा मसीह, पैगम्बर मुहम्मद, नानक यहां सभी ने अपने लिए जगह बनाई और सनातन धर्म के साथ सहअस्तित्व बनाया। विविधता, विशाल आबादी और शांति (देश के स्तर पर) - यह कोई आज की बात नहीं है। विश्व मानव के लिए यही एक निमंत्रण है - जीवन को पूरा समझने और जीने का। इसीलिए दुनियाभर के मानवतावादी, विचारक, वैज्ञानिक, प्रशासक, कलाकार इत्यादि इतिहास के हर कालखंड में भारत को गंभीरता से देखते हैं। विश्व बाजार भी बार-बार भारत को गौर से देखता है। भौगोलिक तौर पर अलग-अलग विश्व के भूखंडों को सबसे पहले व्यापारियों ने ही जोड़ा। विश्व बाजार बार-बार भारत आता है। प्राचीन काल और मध्यकाल में भारत के विश्व से जो संबंध बने उनकी शुरुआत भी व्यापारियों ने की। आधुनिक विश्व में भी बाजार कभी पूंजीवादी वैश्वीकरण की हवा पर सवार होकर तो कभी ईस्ट इंडिया कंपनी की साम्राज्यवादी महत्वकांक्षा लेकर। बाजार के पीछे यहां की तमाम उम्मीदों और जरूरतों के साथ अपने तरीके से तालमेल बिठाता है। भारत की चिर कुंठाओं से संघर्ष करता है लेकिन एक मकाम पर आकर सवालों के जवाब देना बंद कर देता है। सांप्रदायिकता जैसे सवाल बाजार के लिए घातक हैं ।
दिलचस्प है कि सांप्रदायिकता कभी बाजार से या वसुधैव कुटुम्बकम की विचारधारा से नहीं टकराती। सांप्रदायिकता टकराती है सांप्रदायिकता से। यह बहुस्तरीय टकराव है।  इसे आधुनिक इतिहास के बेहतरीन विश्लेषक विपिन चंद्रा की स्थापनाओं से समझा जा सकता है। कैसे भारत अपनी विविधताओं में जीते हुए सांप्रदायिकता की गुंजाइश रखता है, कैसे उसमें संप्रदायवाद की घास हमेशा उगी रहती है, कैसे उस घास के बीच-बीच में स्वार्थ की फसल उगाई जाती है, कैसे वह फसल विष का संचार करती देती है और क्यों यह विष हमारे दिमाग में भी घुलने लगता है।

सांप्रदायिकता किस कदर खतरनाक रुप ले सकती है इसके अनेक उदाहरण हैं। यह निर्भर करता है कि समय के खास बिन्दु पर इसे किस चीज से जोड़ा गया। सांप्रदायिकता को राष्ट्रवाद के साथ जो़ड़ने के बेहद भयावह किन्तु सफल प्रयास का नतीजा है पाकिस्तान का जन्म। वह प्रसव पीड़ा भी भारत ने बर्दाश्त की। इसलिए भारत की क्षमता पर किसी को शक नहीं। वक्त के साथ सवाल जरूर बदल जाते हैं लेकिन लोकतंत्र में सामूहिक चेतना के इन गंभीर और जागृत प्रश्नों को संबोधित करने का अधिकार जनता के पास है।
लोग भी जानते हैं कि यहां इतनी सारी देसी-विदेशी नस्लें, भाषाएं, संस्कृतियां इत्यादि क्यों हैं? और फिर भी हम नस्ली भारतीयता क्यों महसूस करते हैं?  भारत को सोचना होगा सांप्रदायिकता का चोला ओढ़कर आंतकवाद और अलगाववाद इतना मजबूत क्यों होता जा रहा है। ऐसे में सोचना होगा कि बहुसंख्यकवाद क्या सांप्रदायिकता की एक नई हवा है या फिर अल्पसंख्यकवाद का रास्ता रोकने के लिए पैदा हुआ विक्षोभ। सोचना यह भी होगा कि हम बाजार के जिस नए दौर में खड़े हैं उससे हमें चाहिए क्या - युद्ध और हिंसा का साजो-सामान या जीवन स्तर में सुधार करने की तरकीब। भारत में बुनियादी सवालों का हल किया जाना अभी बाकी है। भूख, गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा इत्यादि के मोर्चे पर जंग पहले से जारी है।
इतिहास गवाह है कि सत्ता और शक्ति की प्रेरणा से ही संगठन बनते हैं, राज्यों का निर्माण होता है, राष्ट्रों का जन्म होता है। लेकिन भारत एक ऐसे प्रचीनतम संगठन का नाम है जो सहअस्तित्व की प्रेरणा से विकसित हुआ है। सत्ता के लिए सक्रिय शक्तियों, आधुनिक विश्व की राजनैतिक उपलब्धियों और आम भारतीयों के बीच अघोषित समझौते का नाम है भारतीय लोकतंत्र। लेकिन सत्ता संघर्ष के समानांतर बुनियादी जरुरतों की दिनचर्या भारत के लिए नई नहीं है। ऐतिहासिक काल में भारत के कई उद्धरण हैं जहां एक तरफ दो सेनाओं के बीच युद्ध चल रहा होता था और बगल के खेत में किसान हल चला रहा होता था।
सांप्रदायिकता जैसी कुंठाएं भी भारत के लिए एक अपनी विविधता को जीने का एक माध्यम है। वक्त और जरूरत के हिसाब से इसे किसी भी चीज से जोड़ा जा सकता है, किन्तु सांप्रदायिकता भारत की विविधतओं का उपजात है और हम इसके साथ जीना जानते हैं। महत्वकांक्षी शक्तियों के लिए भटकाने का यह साधन अंतत: काठ की हांडी साबित होता है। 

No comments:

Post a Comment

शेयर