बहुत मुमकिन है कि विपक्षी दल आने वाले दिनों में झारखंड के मुख्यमंत्री के निवेश प्रोत्साहन दौरों के खर्च का व्यौरा सार्वजनिक करें और उनसे पूछा जाए कि बदले में मिला क्या। तब शायद ही रघुबर दास के पास बताने के लिए बहुत कुछ होगा।
झारखंड में निवेश प्रोत्साहन के लिए देश के महानगरों का दौरा कर रहे मुख्यमंत्री रघुबर दास पर चुटकी लेते हुए पूर्व मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष हेमन्त सोरेन ने कहा है कि रघुबर दास मिनी मोदी हैं। मोदी समर्थकों के नजरिए से यह टिप्पणी एक कॉम्प्लिमेंट लगती है, लेकिन इसके ठीक विपरीत मोदी विरोधियों के मन में रघुबर दास के प्रति उन खास आलोचनाओं की पुष्टि होती हुई दिखती है जिनसे मोदी को शुरू से घेरा जा रहा है। बहुत मुमकिन है कि विपक्षी दल आने वाले दिनों में झारखंड के मुख्यमंत्री के निवेश प्रोत्साहन दौरों के खर्च का व्यौरा सार्वजनिक करें और उनसे पूछा जाए कि बदले में मिला क्या। तब शायद ही रघुबर दास के पास बताने के लिए बहुत कुछ होगा।
सवाल उठता है कि क्या रघुबर दास मिनी मोदी बनकर झारखंड की जरूरतों को पूरा कर पाएंगे। निवेश झारखंड की अकेली जरूरत नहीं है। झारखंड में प्रचूरता में निर्धनता वाली विशिष्ट स्थिति है। आज भी सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य की स्थिति चुनौतीपूर्ण है। निश्चित तौर पर निवेश से़ विकास का बड़ा रास्ता खुल जाएगा, लेकिन झारखंड में निवेशकों की राह के रोड़े भी बहुत हैं और अभी उन्हें दूर करने के लिए बहुत कुछ नहीं किया गया है। मसलन नक्सलवाद रुप बदलकर निवेश की राह में आज भी रोड़े अटका रहा है। ऐसी स्थिति में रघुबर दास मिनी मोदी बनकर समस्याओं को किस हद तक समाधान की तरफ ले जाने में सफल होंगे, कहना मुश्किल है।
रघुबर को मिनी मोदी कहने के पीछे निवेश के लिए हो रही कवायद पर एक व्यंग देखा जा सकता है लेकिन दूसरी और सबसे गंभीर वजह प्रचार पाने की व्याकुलता भी है। बीजेपी के समर्थक भी नहीं समझ पाते कि आखिर सरकार कामकाज और प्रचार के अनुपात का संतुलन क्यों नहीं बना पाती। हाल में राज्य भर में पौने दो लाख डोभा बनाने की योजना पर काम हुआ। सरकार इस योजना के प्रचार की तैयारियां कर रही थी कि समाचार माध्यमों में डोभा गलत वजहों से सुर्खियां बनाने लगा। खुले में असुरक्षित तरीके से खोदे गए डोभों में डूबकर बच्चों की इतनी मौतें हो चुकी हैं कि सरकार इस योजना का श्रेय लेने वाले विज्ञापनों को रोकने पर मजबूर हो गई। वृक्ष लगाने औऱ वृक्ष बचाने की हरियाली योजना का भी यही हाल है। वृक्ष लगने से पहले विज्ञापन आने लगे कि कैसे झारखंड इस योजना की बदौलत एक आदर्श पर्यावरण वाला राज्य बन जाएगा।
हेमन्त सोरेन हो या सड़क पर खड़ा आम झारखंडी सरकार के कामकाज की आलोचना करते हुए प्रचार की व्याकुलता और आपाधापी में बिना तैयारी के मैदान में उतर जाने की आदत को जरूर रेखांकित करता है। ऐसा नहीं है कि सरकार कोई काम नहीं कर रही है, लेकिन एक काम जनता को ठीक से समझ में भी नहीं आता कि उसके विज्ञापन आने लगते हैं और इससे पहले कि लोग उसकी सच्चाई पता करें एक दूसरा काम और विज्ञापन शुरू हो जाता है। केन्द्र से लेकर राज्य सरकार तक योजनाओं की झड़ी लगा रहे हैं जबकि आम आदमी अपने जीवन में बदलाव महसूस करने का इंतजार कर रहा है।
रघुबर को मिनी मोदी कहा जाना एक तरह से उनमें मौलिकता की कमी की तरफ भी इशारा करता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे रघुबर दास को दिल्ली के आकाओं से बना-बनाया ब्लू प्रिंट मिलता है जिसे वह अपने चंद निकटस्थ नौकरशाहों की सहायता से लागू करवाते हैं। राज्य की बुनियादी जरूरतों को इसमें स्थान नहीं मिलता ऐसा नहीं कहा जा सकता लेकिन ऐसा होता हुआ दिखता नहीं है। सरकार ने योजना बनाओ अभियान के जरिए यह छवि गढ़ने की कोशिश तो की लेकिन अंतत: उसके भीतर से निकाला क्या गया - डोभा निर्माण योजना। गुजरात में आजमाई गई डोभा निर्माण योजना झारखंड में भी कामयाब हो सकती है, लेकिन इसके लिए अपनाई गई बेचैनी इसके प्रभाव को कम कर रही है।
तात्पर्य यह है कि झारखंड को अपने लिए मिनी मोदी की जरूरत नहीं है। केन्द्र की मोदी सरकार के लिए यह मॉडल शोकेस मेंं सजाने के काम आ सकता है लेकिन झारखंड की जरूरतें एक भदेस नेतृत्व की मांग करती हैं। ऐसा बीजेपी कार्यकर्ताओं का समर्थकों का बड़ा वर्ग भी मानता है।
बहुत अच्छा विश्लेषण।
ReplyDeleteधन्यवाद।
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