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Wednesday, July 20, 2016

झारखंड : निवेश की राह में उग्रवाद के चलते 5 बाधाएं

झारखंड सरकार कुछ बड़े निवेशकों के साथ पहले दौर का एमओयू साइन कर सकती है। लेकिन निवेशक जमीन पर उतरने को तैयार हों इसके लिए इस समस्या की जड़ पर यानि उग्रवादियों की आर्थिक जड़ पर चोट जरूरी है।

झारखंड में निवेशकों को आकर्षित करने के तमाम उपाय किए जा रहे हैं। सोच यह है कि बड़े और छोटे निवेशक आएंगे तो रोजगार और आय के स्रोत पैदा होंगे, अर्थव्यवस्था में तेजी आएगी और विकास होगा। सोच बहुत अच्छी लगती है और राज्य के लोग भी यही चाहते हैं। कम से कम सरकार चला रही बीजेपी के वोटर तो यही चाहते हैं। रघुबर सरकार को नरेन्द्र मोदी विकास का एक मॉडल बनाना चाहते हैं। इसलिए केन्द्र सरकार झारखंड में निवेश और विकास का रास्ता तैयार करने के प्रति गंभीर है। लेकिन फिर भी यकीन नहीं होता कि यहां अच्छे दिन आएंगे।
उधर रघुबर दास हैदराबाद में निवेशकों के सामने झारखंड की क्षमता शोकेस कर रहे थे इधर रांची में पांच राज्यों के झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और फश्चिम बंगाल पुलिस के आला अधिकारी नक्सलियों के खिलाफ समन्वय के लिए बैठक कर रहे थे। नक्सलियों के बड़े संगठन सीपीआई-माओवादी कमजोर हो चुका है और अब इसकी कमर तोड़ देने की कोशिश हो रही है। भारी-भरकम प्रोत्साहन वाले आत्मसमर्पण पैकेज ऑफर किए जा रहे हैं। सीआरपीएफ और राज्यों की पुलिस लगातार ऑपरेशन चला रही है। लेकिन सवाल बना हुआ है कि झारखंड जैसे राज्य में नक्सलियों के खौफ का जो आलम है वह इतनी राहत से हल्का हो जाएगा। जमीनी हालात कहते हैं कि इन पांच वजहों से उग्रवाद झारखंड में निवेशकों का रास्ता रोके खड़ा है - 


1- नक्सल की जगह संगठित उगाही गिरोह - झारखंड में नक्सलियों के खिलाफ ने कांटे से कांटा निकालने की नीति को स्वीकार्यता दी गई। पुलिस ने मुूल संगठन सीपीआई(माओवादी) के लड़ाकों को तोड़कर स्पिलिंटर ग्रुप्स बनवाए और उन्हें के खिलाफ उतार दिए। नतीजा यह हुआ की माओवादी तो कमजोर हुए लेकिन टीपीसी, जेएलटी, पीएलएफआई जैसे दर्जनों छोटे बड़े संगठनों ने उनकी जगह ले ली। जेजेएमपी इसी की ताजा कड़ी है। इस नीति पर चलने का सबसे घातक परिणाम यह हुआ कि स्प्लिंटर ग्रुप्स और पुलिस के अधिकारियों के बीच पेशेवर संबंध हो गए। लेवी में हिस्सेदारी होने लगी और धीरे-धीरे प्रशासन और राजनीति के प्रमुख लोग इस नेटवर्क में शामिल हो गए। आज हालत यह है कि एक स्प्लिंटर ग्रुप का सरगना न सिर्फ विधायक है बल्कि सरकार का चहेता है। राज्य के हजारों छोटे-बड़े उद्योगपति और कारोबारी, सरकारी अधिकारी यहां तक कि जनप्रतिनिधि इन स्प्लिंटर ग्रुप्स को लेवी देते हैं।

2- परियोजना लागत में लेवी का अनुपात - नए निवेश में परियोजना लागत के विभिन्नि मदों के साथ अगर लेवी को भी जोड़ लिया जाए तो स्वाभाविक है कि लाभांश घटेगा। घूस के पैसे और लेवी की लागत कोई वैल्यु एड नहीं करते। निवेशक लाभांश के लिए निवेश करता है। लाभांश को कम करने वाली किसी भी स्थिति में वह क्यों फंसना चाहेगा। दिक्कत सिर्फ इतनी नहीं है। लेवी के लिए स्प्लिंटर ग्रुप्स आपस में प्रतियोगिता करते हैं और कई बार अनेक ग्रुप्स का पेट भरना मजबूरी हो जाती है। मतलब लेवी परियोजना लागत बढ़ाएगा और यह बढ़त किस हद तक जा सकती है इसका अनुमान करना संभव नहीं है।

3- कर्मचारी क्यों उठाए जोखिम - नक्सल या ग्रुप्स के प्रभाव वाले इलाकों में लेवी के मोल-भाव में गड़बड़ होने या डर पैदा करने के लिए काम कर रही कंपनियों के कर्मचारियों को अक्सर कोप का शिकार बनाया जाता है। कर्मचारी अगवा कर लिए जाते हैं, मशीनें और प्लांट जला दिए जाते हैं। बड़े उद्योगों की सुरक्षा तो फिर भी चाक-चौबंद की जा सकती है, लेकिन विकास कार्यों लगी ठेकेदार कंपनियों, ठेकेदारों और छोटी यूनिटों के कर्मचारी आसान शिकार बन जाते हैं। ऐसे में योग्य और कुशल मानव संसाधन झारखंड में सेवा देने को तैयार नहीं होता।

4- दोहरी हुकूमत - झारखंड में राजधानी रांची के बाहरी इलाकों से ही दोहरी हुकूमत का दायरा शुरू हो जाता है। आज सरकार निवेशकों के लिए रेड कार्पेट बिछा रही है, लेकिन सरकारी ढांचा भ्रष्टाचार में लिप्त है। यह अपने आप में एक बड़ी बाधा है, उपर से उग्रवादी हुकूमत का दूसरी लकीर खींचने में लगे। अब सिर्फ लेवी देकर उग्रवादियों को शांत नहीं किया जा सकता। इलाके का जनप्रतिनिधि कौन हो, यहां से लेकर इलाके के कारोबारी किसे काम दें, किसे ठेका दें, किससे सप्लाई लें, यह सब भी उग्रवादी ही तय कर रहे हैं। यही नहीं अधिकारियों की पोस्टिंग तक स्प्लिंटर ग्रुप्स के प्रभाव में तय होती है।

5-  मुक्ति का मार्ग अनिश्चित - ना तो सरकार नक्सलियों के सफाए का कोई टाइमलाइन देने में सक्षम है और ना ही निकट भविष्य में यह होता हुआ दिखाई देता है। उल्टा नक्सली, पुलिस, नेता गठजोड़ मजबूत होता जा रहा है। लोगों ने भी इसके साथ जीना सीखने की शुरुआत कर दी है। खनिज से लेकर बड़े-छोटे कारोबार तक उग्रवादी खौफ के साए में है। जमीन पर सिर्फ खौफ का रूप बदल रहा है और इसकी कीमत बढ़ती जा रही है।

मौजूदा हालात में झारखंड सरकार कुछ बड़े निवेशकों के साथ पहले दौर का एमओयू साइन कर सकती है। लेकिन निवेशक जमीन पर उतरने को तैयार हों इसके लिए इस समस्या की जड़ पर यानि उग्रवादियों की आर्थिक जड़ पर चोट जरूरी है। इसमें किसी तरह का दोहरापन सरकार के सपनों पर पानी फेर सकता है। पहले की केन्द्र सरकारें नक्सल की समस्या का आकलन करने में नाकाम रही हैं। राज्य सरकार समझकर भी क्या कर सकती है, वह तो पैदा होने के लिए भी उसकी सहायता पर निर्भर है।

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