अजनबी की पहचान

Monday, December 10, 2012


निराश हुई नगड़ी

सबने लगाया जोर लेकिन हालात जस के तस

व्यवस्था और लचर आंदोलन के बीच पिस गए गरीब आदिवासी



रांची के नगड़ी चौरा में लॉ यूनिवर्सिटी, आईआईएम और आईआईआईटी के लिए 227 एकड़ भूमि के अधिग्रहण पर कोर्ट की सख्ती और दयामनी बारला के जेल जाने के बाद रैयतों की लड़ाई अब ठंडी होती दिखाई देती है। रैयतों का संघर्ष किसी तार्किक परिणाम तक नहीं पहुंच पाया। आज वहां संगीनों के साये में निर्माण चल रहा है और महीनों आंदोलन करने, लाठियां खाने और कोर्ट के चक्कर काटने के बाद नगड़ीवासी छाती पीटने को मजबूर हैं।  रैयत को जमीन वापसी से कम कुछ भी स्वीकार नहीं है, जबकि सरकार जमीन वापसी के विकल्प पर बात करने के लिए भी तैयार नहीं। कुल मिलाकर रैयतों की जमीन जाती हुई दिखाई दे रही है और उन्हें उचित मुआवजा भी नहीं मिल रहा है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल ये पैदा हो गया है कि जान देंगे पर जमीन नहीं का नारा जो सदियों से जनजातीय समाज को परिभाषित करता आया है – क्या अब उनके लिए बर्बादी का सामान बन रहा है ? अगर ऐसा है तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है ?  सवाल तो ये भी है कि झारखंडी समाज का वो हिस्सा जिसे किसी तरह एक वक्त की रोटी मिल पा रही है, जमीन से भी जाने के बाद क्या अस्तित्व बचाए रख पाएगा ? सैद्धांतिक असहमति के बावजूद क्यों बार-बार कृषि योग्य जमीन का अधिग्रहण किया जाता है ?  

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