अजनबी की पहचान

Tuesday, December 9, 2014

स्थायित्व : कितनी दूर, कितने पास

चुनाव का वक्त आते-आते झारखंड में लगभग सभी पक्षों ने एक तरह से स्वीकार कर लिया है कि झारखंड की तमाम नाकामियों और समस्याओं का ठीकरा सत्ता में स्थायित्व की कमी के सिर फोड़ा जा सकता है. यही वजह है कि वैसी पार्टियां भी जनता से पूर्ण बहुमत की मांग कर रही हैं, जिन्हें दो अंकों में पहुंचने का भरोसा नहीं है. इसके पीछे दो बातें साफ तौर पर दिखाई देती हैं. एक तो गठबंधन की राजनीति को अस्थायित्व की मुख्य वजह बताने की बेताबी और दूसरे, 2003 के बाद से अस्थायित्व की आड़ में जारी कुशासन और स्वार्थ पूर्ति के खेल को वैधता प्रदान करना. प्रकारान्तर से यह लूटने की आजादी का जनादेश मांगने जैसा है. बहुत बड़े तबके के लिए साफ संदेश है कि जब लूटना ही है तो हमें मौका दीजिए क्योंकि आपकी और हमारी पहचान एक है. यह पहचान जाति भी हो सकती है, धर्म भी, सम्प्रदाय भी और सोच भी. 

Thursday, October 16, 2014

नमो मंत्र का अश्वमेध- राष्ट्रवाद का रथ झारखंड की दहलीज पर

झारखंड ने संसद के आम चुनाव में नरेद्र मोदी के विजय अभियान को बढ़-चढ़कर समर्थन दिया. क्या सिर्फ इसीलिए मान लेना सही होगा कि विधानसभा चुनाव में बीजेपी पूर्ण बहुमत प्राप्त करेगी. रांची के कार्यकर्ता सम्मेलन में राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के भाषण का लब्बो-लुवाब तो यही है. शाह ने झारखंड की जनता से दो तिहाई बहुमत या कम से कम पूर्ण बहुमत देने की उम्मीद की है. यह उम्मीद अकेले शाह की नहीं लेकिन चुनाव दर चुनाव जीत का रेकार्ड सुधारते आ रहे शाह से ज्यादा कौन यह समझ सकता है कि हर चुनाव अलग होता है. फिर भी अगर पूरी उम्मीद के साथ वह कार्यकर्ताओं से कह रहे हैं कि दो तिहाई बहुमत भी हासिल किया जा सकता है तो उनकी बात को गंभीरता से लेना पड़ेगा, क्योंकि अमित शाह के नाम चुनाव लड़ने और जीतने का रेकार्ड विस्मयकारी है. फिर भी सवाल उठता है कि आखिर किन वजहों से अमित शाह को इतना भरोसा है.



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