अजनबी की पहचान

Thursday, October 16, 2014

नमो मंत्र का अश्वमेध- राष्ट्रवाद का रथ झारखंड की दहलीज पर

झारखंड ने संसद के आम चुनाव में नरेद्र मोदी के विजय अभियान को बढ़-चढ़कर समर्थन दिया. क्या सिर्फ इसीलिए मान लेना सही होगा कि विधानसभा चुनाव में बीजेपी पूर्ण बहुमत प्राप्त करेगी. रांची के कार्यकर्ता सम्मेलन में राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के भाषण का लब्बो-लुवाब तो यही है. शाह ने झारखंड की जनता से दो तिहाई बहुमत या कम से कम पूर्ण बहुमत देने की उम्मीद की है. यह उम्मीद अकेले शाह की नहीं लेकिन चुनाव दर चुनाव जीत का रेकार्ड सुधारते आ रहे शाह से ज्यादा कौन यह समझ सकता है कि हर चुनाव अलग होता है. फिर भी अगर पूरी उम्मीद के साथ वह कार्यकर्ताओं से कह रहे हैं कि दो तिहाई बहुमत भी हासिल किया जा सकता है तो उनकी बात को गंभीरता से लेना पड़ेगा, क्योंकि अमित शाह के नाम चुनाव लड़ने और जीतने का रेकार्ड विस्मयकारी है. फिर भी सवाल उठता है कि आखिर किन वजहों से अमित शाह को इतना भरोसा है.





मोदी नाम केवलम
लोकसभा चुनाव में यूपीए-कांग्रेस विरोध की जमीन पर नरेन्द्र मोदी का ब्रांड चमक उठा तो चमत्कार हो गया. साम्प्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद जैसे तमाम मसले दबा दिए गए और लोगों ने लाख दुखों की एक दवा की तरह एक ब्रांड को मुद्दा मान लिया. बीजेपी के पास चुनाव में इसी ब्रांड को मुद्दा बनाए रखने और तूल दिए रहने के अलावा कोई चारा नहीं है. चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में बीजेपी मोदी के नाम पर ही वोट मांग रही है. झारखंड बीजेपी के कार्यकर्ताओं को परोक्ष रूप से अमित शाह ने यही समझाने की पुरजोर कोशिश की. शाह को लगता है कि स्थानीय स्तर की उलझनों से बचने के लिए भी यही ठीक होगा कि विधानसभा चुनाव में ब्रांड नरेन्द्र मोदी का दामन पकड़े रहें, प्रदेश स्तर की गुटबाजी को अनदेखा करते हुए भारत विजय का जश्न मनाएं और डोमिसाइल, पुनर्वास, अधिग्रहण, नक्सलवाद, सीएनटी और पेसा जैसे विवादित मसलों से खुद भी दूर रहें और जनता को भी दूर रखें.
शाह ने कार्यकर्ताओं से कहा कि इस बार विधानसभा चुनाव नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में लड़ा जाएगा. मोदी झारखंड का मुख्यमंत्री बनने तो आएंगे नहीं लेकिन इससे प्रदेश में मुख्यमंत्री उम्मीदवारों की लड़ाई थम जाएगी. दरअसल, बीजेपी चुनाव तक नेतृत्व का मसला लटकाए रखना चाहती है, क्योंकि फिलहाल पार्टी के पास कोई ऐसा चेहरा चेहरा नहीं है जिसे ब्रांड मोदी के साथ सीधे तौर पर जोड़कर पेश किया जा सके. चुनाव के बाद मिजाज से नरम या फिर सख्त फैसले लेने में सक्षम किसी व्यक्ति को हालात और परिस्थिति को देखते हुए कुर्सी पर बिठा दिया जाएगा.
दिक्कत यह है कि ब्रांड मोदी और झारखंड की समस्याओं के बीच सीधा संबंध नहीं हो सकता. सवाल उठता है कि क्या लोग इस अस्पष्टता के बावजूद यह जिम्मेदारी ब्रांड मोदी को सौंपने के लिए तैयार होंगे. दरअसल, झारखंड हो या चुनाव में जा रहे तीन अन्य राज्य, मोदी का नाम परंपरागत मुद्दों और राजनीति को प्रभावशून्य करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. यह एकदम नए सिरे से उम्मीदें जगाने की रणनीति है जिसने लोकसभा चुनाव में बीजेपी को उम्मीद से बेहतर परिणाम दिए हैं. यह नरेन्द्र मोदी के भारत विजय अभियान की दूसरी कड़ी है. राजनीतिक हस्तक्षेप से देश में परिवर्तन लाने के लिए सत्ता ही माध्यम हो सकती है और संघीय ढांचे में सत्ता की परिभाषा राज्य और केन्द्र की शक्तियों को मिलाकर ही पूरी की जा सकती है. मोदी मुख्यमंत्रियों के साथ टीम बनाकर काम करने की बात करते हैं, इसलिए वह चाहते हैं कि जनता उन्हें टीम के सदस्य चुनकर देने की बजाए टीम के सदस्यों को नियुक्त करने की शक्ति दे. दूसरे शब्दों में, देश की सारी राजनीतिक ताकत को लोकतांत्रिक तरीके से इकट्ठा करने के लिए ही ब्रांड मोदी का व्यापक स्वरूप गढ़ा जा रहा है. आलोचकों को इसी वजह से नरेन्द्र मोदी में डिक्टेटर दिखाई देता है. किन्तु, जबतक देश की आवाम इसे परिवर्तन का एक सरल माध्यम समझती रहेगी, केन्द्रीकरण का यह दौर कायम रह सकता है, पूरक शर्त यह है कि बतौर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी डिलीवर करते रहें. मोदी फिनोमेना ने यह भी साबित किया है कि आवाम नेतृत्व चाहती है और नेतृत्व पर भरोसा बनता जाए तो बाकी बातों को लेकर नुक्ताचीनी कम होती जाती है. मोदी ब्रिगेड चाहता है कि झारखंड समेत चार राज्यों की जनता चुनाव के ठीक पहले सोच के इसी बिन्दू पर पहुंचे – मोदी नाम केवलम!  
विकास का राष्ट्रवाद
विजय रथ में मोदी के सारथी अमित शाह ने रांची के कार्यकर्ता सम्मेलन में स्पष्ट कहा कि लोग विधायक का चुनाव ना करें, मुख्यमंत्री बनाने के लिए वोट दें. मतलब बीजेपी को पूर्ण बहुमत के साथ कुर्सी सौपें. यह मोदी को शासन सौंपने का सीधा निमंत्रण है. यह झारखंड के मतदाता से एक गुजारिश है कि वह स्थानीय स्तर यानि जिला और चुनावक्षेत्र के मसलों को भी दरकिनार कर विकास की एक राष्ट्रीय सोच के साथ जुड़े. चौदह साल के झारखंड में ज्यादातर वक्त बीजेपी की सरकार रही है. 2005 के बाद से लोग देखते आ रह हैं कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सरकार में यूपीए है या एनडीए. अब लोगों को दलों, मुद्दों और विभाजन की रेखाओं से उपर उठकर एक ऐसे नेता पर विश्वास करने को कहा जा रहा है, जिसने चमत्कारिक जीत हासिल की है, जिसकी दुनियाभर में विशाल छवि उभर रही है, जो युगान्तकारी विकास की बात कह रहा है और जिसके पास शक्तियां इकट्ठा हो रही हैं. यह भारत में राष्ट्रवाद का ताजा संस्करण है जो जातीय, साम्प्रदायिक, भाषायी, प्रांतीय विभाजनों से बेलौस होकर विकास के लिए सोचने का आवाहन कर रहा है.
झारखंड के अंदरूनी हालात मुक्ति का कोई मार्ग नहीं सुझा पाए. अलग राज्य का गठन एनडीए के शासनकाल में हुआ था और पहली सरकार एनडीए की बनी, लेकिन कालक्रम में 32 सीटों वाली बीजेपी घटकर 18 सीटों पर आ गई. चौदह साल में किसी भी दल ने ऐसे कर्म नहीं किए जिसके लिए जनता बहुमत से नवाजे. मोदी फैक्टर को हटाते ही, साफ तौर पर, एक बार फिर से गठबंधन वाली कामचलाउ सरकार बनती हुई दिखाई देती है. गरीबी, अशिक्षा और पिछड़ेपन से अपने दम पर लड़ रही झारखंड की जनता किस हद तक विकासवादी राष्ट्रवाद से जुड़ पाएगी यह कह पाना बहुत आसान नहीं है. संथाल परगना और पलामू का राजनीतिक मिजाज इन्हीं वजहों से उखड़ा-उखड़ा सा रहा है. फिर भी लोकसभा चुनाव के रुझान अगर जारी रहे तो झारखंड एक नई सोच के साथ आगे बढ़ सकता है.
क्षत्रप रखने का प्राधिकार
झारखंड का अगला मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री का क्षत्रप होगा, झारखंड में मोदी का प्वाइंट पर्सन. जनता अगर बीजेपी को बहुमत की सरकार बनाने का मौका देती है तो यह एक तरह से मोदी को अधिकृत करने जैसा होगा. फिर मोदी जिसे अधिकृत करेंगे वही शासन की बागडोर संभालेगा. इसमें किसी तरह के किन्तु-परन्तु की गुंजाइश अब नहीं रही. लेकिन वह कौन होगा, इसका फैसला चुनाव के बाद होगा. इसमें सबकी सुनी जाएगी लेकिन जाहिर है कि इसमें फैसला करने का हक सिर्फ नरेन्द्र मोदी का होगा. आंकड़ों और अनुसंधान पर आधारित व्यूहरचना आधुनिक राजनीति की पहचान है और मोदी इसके माहिर खिलाड़ी. झारखंड बीजेपी के तमाम छोटे-बड़े नेताओं की जीवनी स्कैन करना अब कोई बहुत बड़ी बात नहीं है.
झारखंड की आवाम के आगे भी मसला मुख्यमंत्री का नहीं, प्रदेश में एक अच्छी सरकार बनाने का है, जिसके पास सबको साथ लेकर चलने और आगे बढ़ने का विजन हो. जनता लूटने वाली सरकारों से आजीज आ चुकी है और इस मायने में वह यूपीए और एनडीए के बीच अंतर और समानताएं देख चुकी है. राष्ट्रीय पार्टियों में परंपरा के तहत मुख्यमंत्रियों की नियुक्ति आलाकमान की मर्जी से होती रही है और क्षेत्रीय पार्टियों में राष्ट्रीय पार्टियों के आलाकमान के आशीर्वाद से. अगर मोदी अपना प्रतिनिधि नियुक्त करते हैं तो यह पहली बार होगा कि मुख्यमंत्री नियुक्त करने के लिए जनता वोट देकर किसी को अधिकृत करेगी. यह पहली बार है कि चुनाव के बाद अपनी शक्ति का प्रयोग कर मुख्यमंत्री थोपने की बजाए कोई खुलकर प्राधिकार मांग रहा है. यहां जनता को अपने लिए एक नेतृत्वकर्ता को चुनने की जरूरत नहीं, उसे नेता को अधिकार देना है कि वह प्रांतीय शासन को भी अपने तरीके से चलाए.            
उखड़ गए खेमे
झारखंड बीजेपी की सबसे बड़ी बीमारी का एक झटके से इलाज हो गया. खेमेबाजी पूरी तरह से खत्म तो नहीं हुई लेकिन बड़े खेमेबाजों की भलाई इसी में बची है कि वे अनुशासन में रहते हुए पार्टी की जीत और मोदी की नजर में अपनी बेहतर छवि सुनिश्चित करें. पार्टी की राजनीतिक ताकत पर कब्जा करने के लिए प्रदेश स्तर के नेताओं ने अपने-अपने खेमे खड़े कर रखे हैं. संगठन पर नजर रखने वालों के मुताबिक मंडल स्तर तक के कार्यकर्ताओं में यह विभाजन साफ तौर पर देखा जा सकता है. खेमेबाजी की वजह से कार्यकर्ता पार्टी से ज्यादा व्यक्तिगत नेताओं से निष्ठा रखने पर मजबूर किए गए. तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके अर्जुन मुंडा सबसे मजबूत खेमा खड़ा करने में सफल हुए तो इसमें उनका व्यक्तिगत रणकौशल और सत्ता में होना सहायक सिद्ध हुए. इसी तरह रघुवर दास और यशवंत सिन्हा के समर्थन का आधार भी समझा जा सकता है. खेमे और भी हैं लेकिन इन तीन खेमों के नेता-कार्यकर्ता अनौपचारिक बातचीत में अपनी निष्ठा छिपाने की जरूरत नहीं समझते और स्वीकार करते हैं कि खेमों की लड़ाई में पार्टी हित का नुकसान आम बात हो चुकी है.
ऐसे वक्त में जब स्वार्थ के लिए दल का इस्तेमाल राजनीति का एक मात्र ध्येय बन चुकी हो, कार्यकर्ताओं को स्वार्थ से उपर उठकर दल को मजबूत करने के लिए मजबूर कर देना एक बड़ी कामयाबी है. प्रदेश स्तर के अलंबरदारों के सामने संयम बरतने और आलाकमान के इशारे का इंतजार करने के अलावा कोई चारा नहीं है. मोदी के कैंप में पसीना बहाने वालों की कद्र होती है, इसीलिए प्रतियोगियों के बीच अब ज्यादा से ज्यादा काम करने की प्रतिस्पर्धा शुरू हो चुकी है. खेमे उखड़ते ही सेना मैदान में आ जाती है. खेमों में रहकर युद्ध नहीं जीते जाते, जीतने के लिए मैदान में आना पड़ता है. योद्धा की पहचान मैदान में होती है, खेमों में सिर्फ मैनेजमेंट होता है. विधानसभा चुनाव के नतीजे आते-आते खुद ही साफ हो जाएगा कि खेमेबाजों में कोई योद्धा भी था या सिर्फ मैनेजर ही थे.
दुश्मन की खूबी-खराबी

झारखंड में सरकार चला रही यूपीए की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि वह सत्ता में है. दी गई परिस्थितियों में, यूपीए हो या एनडीए, सत्ता का आधार स्वार्थ से प्रेरित गठबंधन है और सत्ता का चरित्र भ्रष्टाचारी. फिलहाल चूंकि यूपीए सत्ता में है इसलिए सारे सवाल उसी से मुखातिब हैं. चुनाव में गठबंधन को लेकर कोई खास दिक्कत नहीं है लेकिन आजसू और जेवीएम को साथ लिए बगैर नमो मंत्र को टक्कर दे पाना मुश्किल है. इसी बात को ध्यान में रखते हुए बीजेपी ने आजसू और जेवीएम के साथ बातचीत के दरवाजे खोल रखे हैं. इन दोनों पार्टियों के सुप्रिमो क्रमश: सुदेश महतो और बाबूलाल मरांडी जानते हैं कि दोनों धड़ों में से किसी एक के साथ जाना उनके लिए फायदेमंद होगा, लेकिन फैसला करने से पहले वे जान लेना चाहते हैं कि कौन उन्हें बेहतर ऑफर दे रहा है.   

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