दिल्ली और बिहार में नरेन्द्र मोदी की टीम इसीलिए धराशायी हो गई। राजनाथ सिंह इसीलिए प्रासंगिक बने हुए हैं। उत्तर प्रदेश के चुनाव इसीलिए महत्वपूर्ण हैं।
बहुराष्ट्रीय कंपनियां हो या अपनी सरकार, चाहृती हैं कि देश को साध
पाएं तो हिन्दी के बिना पचास प्रतिशत सफलता भी नहीं मिलेगी। यही वजह है कि निरन्तर
तेजी से अपने आप को अपडेट करती रही हिन्दी, अब बाजार को अपने मुताबिक गढ़ रही है।
मगर दिक्कत यह नहीं। दिक्कत यह है कि बाजार समझ रहा है कि वह हिन्दी को अपने लिए
अपने अनुरुप गढ़ रहा है।
देखिए, भाषा प्रभावित जरूर होती है लेकिन किसी के प्रभाव में नहीं आती।
भाषा में असली लोकतंत्र है। दरअसल भाषा मानव जाति द्वारा इजाद की गई पहली सर्विस
इंडस्ट्री है जो फ्री है। फ्री मतलब सिर्फ मुफ्त नहीं, मुक्त भी। भाषा ही एक आदमी
के सारे पैटर्न तय करती है, कन्जम्प्श पैटर्न यानि उपभोग की दशा-दिशा भी। भारत
जैसे बहुभाषा और बहुसंस्कृति वाले देश में हिन्दी ने सबसे बड़ी जगह इसलिए बनाई
क्योंकि वह पैदा ही इसी उद्देश्य के साथ की गई। संस्कृत से प्राकृत, फिर अपभ्रंष
और फिर हिन्दुस्तानी से होती हुई आधुनिक हिन्दी तक। भारत के संदर्भ में यह अंग्रेजी
पर भारी है और सदियों तक रहेगी। अंग्रेजी इसके लिए ज्यादा से ज्यादा फारसी या अरबी
जैसी एक विदेशी भाषा है जिसे प्रचूर मात्रा में अपने भीतर समा लेना है।