अजनबी की पहचान

Tuesday, July 20, 2010

रजमतिया के चिट्ठी


नेट पर मिली है मुझे रजमतिया की चिट्ठी। लगा जैसे पुराने प्रेम पत्रों वाला टिन का वो डब्बा मिल गया,जिसे पता नहीं कहां रखकर मैं भूल गया और जब याद आया तो ये भूल गया कि कहां रखा था। 'रजमतिया के चिट्ठी' एक भोजपुरी लोकगीत है। इसमें मुझे पूर्वांचल का रेखाचित्र दिखाई देता है, इसमें किसान के मजदूर में तब्दील होने की कहानी है। इसके बावजूद उसे और उसके परिवार को सिर्फ जीने भर की छूट मिली है। गरीबी की वजह से बेनूर लेकिन मर्यादा की वजह से गंभीर जिन्दगी ट्रेजेडी में कॉमेडी खोजती दिखाई देती है।

छोटकी गोतिनिया के तनवा के बतिया,
पतिया रोई-रोई ना, लिखावे रजमतिया।

राजमती अपने पति को चिट्ठी लिखवा रही है, जी हां लिखवा रही है क्योंकि उसे लिखना-पढ़ना नहीं आता। लिखवाने की मजबूरी के चलते उसे अपना अंतर्मन एक गैर आदमी को खोलकर दिखाना पड़ता है। वो गैर आदमी कोई भी हो रजमतिया की चिट्ठी लिखकर उठता है तो बेचैन हो जाता है। उसी की बेचैनी है ये लोकगीत।

सोस्ती श्री चिट्टी रउरा भेजनी तेमे लिखल,
सोरे पचे अस्सी रोपेया, भेजनी तवन मिलल
ओतना से नाही कटी, भारी बा बिपतिया। पतिया रोई-रोई ना, लिखावे रजमतिया।

अभिवादन....चिट्ठी और पैसा मिला...मगर नाकाफी है। जितना भेजा उससे ज्यादा की ज़रूरत है। यहां बिपतिया कोई अचानक आ खड़ी हुई विपत्ति नहीं है। ये रजमतिया जैसों की ज़िन्दगी में लगभग स्थाई है। जो किसी के लिए एक छोटा सा अभाव हो सकता है वो किसी और के लिए मर्यादा बचाने की बात हो सकती है

छोटकी के झूला फाटल, जेठकी के नाहीं,
बिटिया सेयान भइल, ओकरो लूगा चाही,
अबगे धरत बाटे कोंहड़ा में बतिया, पतिया रोई-रोई ना, लिखावे रजमतिया।

छोटे बच्चों को फटे कपड़ों में या बिना कपड़ों के रखा जा सकता है, मगर जो बेटी सयान हो रही है, उसके फटे कपड़ों में से उसकी उमर झांकती है। दांपत्य को निलंबित करके रजमतिया ने अपने पति को बाहर इसलिए जाने दिया कि उसके बच्चों को दो जून भरपेट रोटी और गरीबी के दुश्चक्र से मुक्ति मिल सके। लेकिन हुआ क्या है? परिवार बिखर गया, पैसे पूरे नहीं पड़ते। घर का मुखिया है नहीं। औरत जात , मर्यादा से बंधी हुई- क्या-क्या संभाले,किसको रोके।

रोज -रोज मंगरा मदरसा जाला,
एक दिन तुरले रहे मौलवी के ताला,
ओकरा भेंटाइल बा करीमना संघतिया। पतिया रोई-रोई ना, लिखावे रजमतिया।

मंगरा ताला तोड़ रहा है। मां का कलेजा कांपता है, बेटा जवान होता है तो हांथ बंटाता है, अगर उससे पहले ही गलत संगत में पड़ गया तो हथकड़ी पहनेगा। फिर कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगेगा,जगहंसाई होगी। इधर मंगरा का ताला तोड़ना एक तरह से परिस्थितियों के प्रति एक विद्रोह भाव भी दर्शाता है। अब इसपर रजमतिया के पति की स्वाभाविक प्रतिक्रिया क्या होगी? वो घर पर होता तो शायद मंगरा के साथ जूतों से बात करता। मार-मार कर उसे अधमरा कर देता। मगर वो परदेस में है। वो गुस्सा होगा, दांत पीसेगा और चिन्ता में भी पड़ जाएगा। रजमतिया चिट्ठी लिखने वाले को एक-एक कर बातें बताती भी जाती है और सोचती भी जाती है कि उसके पति पर इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी। इसलिए चिट्ठी में अचानक एक मोड़ आता है।

पांडे जी के जोड़ा बैला गइलेसऽ बिकाइ,
मेलवा में गइले त पिलवा भुलाइल,
चार डंडा मरले मंगरू, भाग गइल बेकतिया। पतिया रोई-रोई ना, लिखावे रजमतिया।



जाड़ा के महीना बा, रजाई लेम सिआइ,
जाड़ावा से मर गइल दुरपतिया के माई,
बड़ा जोर बीमार बा भिखारी काका के नतिया। पतिया रोई-रोई ना, लिखावे रजमतिया।

इन पंक्तियों में पति-पत्नी के बीच का स्वाभाविक संवाद है। इसमें गांव-मोहल्ले की चर्चा के माध्यम से अपने सामाजिक वर्ग को पहचानने की कोशिश है - जैसे रजमतिया विपरीत परिस्थियों से टकराने के लिए ठहरकर नई ऊर्जा संकलित कर रही हो। फिर आखिर में एक और निवेश(investment) को तरलीकृत(liquidate) करने का प्रस्ताव पारित करवा लिया जाता है।

कबरी बकरिया रात-भर मेंमिआइल,
छोटका पठरुआ लिखीं कतना में बिकाई,
दुखवा के परले खिंचत बानी जँतिया। पतिया...


बकरी छोटे किसान के लिए एक निवेश होती है। बकरी के बच्चे उस निवेश का सूद होते हैं। बकरी का बच्चा कितने में बेचूं। भारत का गरीब ग्रामीण परिवार एक आर्थिक यूनिट है - मगर अर्थशास्त्र इसे स्वीकार करने को तैयार ही नहीं - न तो उत्पादन के लिहाज से और ना ही उपभोग के लिहाज से। लिहाजा इसका अपना अर्थशास्त्र है। रजमतिया ज़रूरतों का पिटारा खोलती है और पति की भेजी हुई रकम को कम बताती है तो उपाय भी रखती है। बकरी का छोटा बच्चा, पठरुआ - ये वो पट्ठा है जो ग्रामीण भारत की इस छोटी सी कहानी को सुखांत बनाने की कोशिश करता हुआ शहीद हो जाएगा।
बोलिए कुछ कहना है।

2 comments:

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  2. इस कविता पर एक गीत याद आ गया

    ऐ सजनी रे ऐ सजनी रे ऐ सजनी
    पिया गइलन कलकतवा ऐ सजनी
    गोरुआ में जूता नहिखे सरवा पे छतवा
    कैसे चलन रहतवा ऐ सजनी...

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