अजनबी की पहचान

Friday, July 15, 2016

बाजार वाली Hindi और हिन्दी का बाजार - 1

दिल्ली और बिहार में नरेन्द्र मोदी की टीम इसीलिए धराशायी हो गई। राजनाथ सिंह इसीलिए प्रासंगिक बने हुए हैं। उत्तर प्रदेश के चुनाव इसीलिए महत्वपूर्ण हैं।


बहुराष्ट्रीय कंपनियां हो या अपनी सरकार, चाहृती हैं कि देश को साध पाएं तो हिन्दी के बिना पचास प्रतिशत सफलता भी नहीं मिलेगी। यही वजह है कि निरन्तर तेजी से अपने आप को अपडेट करती रही हिन्दी, अब बाजार को अपने मुताबिक गढ़ रही है। मगर दिक्कत यह नहीं। दिक्कत यह है कि बाजार समझ रहा है कि वह हिन्दी को अपने लिए अपने अनुरुप गढ़ रहा है।
देखिए, भाषा प्रभावित जरूर होती है लेकिन किसी के प्रभाव में नहीं आती। भाषा में असली लोकतंत्र है। दरअसल भाषा मानव जाति द्वारा इजाद की गई पहली सर्विस इंडस्ट्री है जो फ्री है। फ्री मतलब सिर्फ मुफ्त नहीं, मुक्त भी। भाषा ही एक आदमी के सारे पैटर्न तय करती है, कन्जम्प्श पैटर्न यानि उपभोग की दशा-दिशा भी। भारत जैसे बहुभाषा और बहुसंस्कृति वाले देश में हिन्दी ने सबसे बड़ी जगह इसलिए बनाई क्योंकि वह पैदा ही इसी उद्देश्य के साथ की गई। संस्कृत से प्राकृत, फिर अपभ्रंष और फिर हिन्दुस्तानी से होती हुई आधुनिक हिन्दी तक। भारत के संदर्भ में यह अंग्रेजी पर भारी है और सदियों तक रहेगी। अंग्रेजी इसके लिए ज्यादा से ज्यादा फारसी या अरबी जैसी एक विदेशी भाषा है जिसे प्रचूर मात्रा में अपने भीतर समा लेना है।


भारत में जिसे हिन्दी प्रदेश या काउ बेल्ट कहा जाता है, उसे बाजार हसरत भरी निगाहों से देखता है और वह बाजार को। यह एक सामान्य आर्थिक संबंध है। बड़ी आबादी इसका आधार है। बाजार को उपभोक्ता चाहिएं और आबादी को रोजगार से लेकर मनोरंजन तक, हर चीज चाहिए। काउ बेल्ट को तरक्की चाहिए इसलिए बाजार के लिए वो बाहें फैलाए खड़ा है। लेकिन बात कुछ बनती नहीं। रफ्तार बहुत धीमी है। दरअसल, काउ बेल्ट को तरक्की तो चाहिए लेकिन उसकी कुछ भदेस शर्तें हैं जिन्हें बाजार नहीं समझ पा रहा है। कहते हैं कोस कोस पर पानी बदले दस कोस पर वाणी। हिन्दी एक बड़े क्षेत्रफल की भाषा है और परदेस में भी प्रयोग में है। इसके विकास की प्रक्रिया और इसका सामयिक रूप बाजार पकड़ नहीं पाता। दिल्ली और बिहार में नरेन्द्र मोदी की टीम इसीलिए धराशायी हो गई। राजनाथ सिंह इसीलिए प्रासंगिक बने हुए हैं। उत्तर प्रदेश के चुनाव इसीलिए महत्वपूर्ण हैं।

आप यह तो समझ रहे हैं कि भाषा किसी भी आदमी या प्रदेश से जुड़ने का सूत्र है। उसकी सभ्यता-संस्कृति और उसे समझने का जरिया है। लेकिन आप यह नहीं समझ पा रहे हैं कि हिन्दी की संरचना मराठी या बांग्ला या फिर तमिल या अंग्रेजी की तुलना में जटिल है। और यही जटिलता हिन्दी प्रदेशों को एक दुरूह पहेली बना देता है। इसे आप हल्के में लेते हुए डील नहीं कर सकते। बाजार के जेनरल फार्मूले फेल हो जाते हैं। प्रसून जोशी इतना बड़ा बाजार गुरू इसी वजह से है। भाषा कोई भी सम्पूर्ण नहीं होती, लेकिन हिन्दी, भाषा के प्राचीनतम स्रोतों में से एक की आधुनिकतम और प्रचलित धारा है।

बाजार अपने लिए अलग हिन्दी गढ़ रहा है। लेकिन बाजार की यह हिन्दी अपने मकसद में कामयाब तभी होगी जब वह हिन्दी के बाजार को समझेगी। यही दरअसल भारत का बाजार भी है। यह बाजार सदियों तक संस्कृतियों के समावेश से मजबूत होता रहा है। इसमें जितने तरह के एकेश्वरवाद हैं उतने तमाम दुनिया में धर्म नहीं हैं। हिन्दी का बाजार, दुनिया के किसी भी कोने में बैठे साहुकार के मुंह में लार पैदा कर देता है। मगर बाजार का आधार तो मांग है – प्रभाव मांग, इफेक्टिव डिमांड। हिन्दी के बाजार का इफेक्टिव डिमांड समझने वालों की निश्चित तौर पर कमी है। बाजार में भी और राजनीति में भी।

5 comments:

  1. बाजार अपने लिए अलग हिन्दी गढ़ रहा है।

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  2. बाजार हिंदी का हो या अंग्रेजी का.. रोज अपने लिए नया बाजार खड़ा करता है.. क्योंकि बाजार में हर माल पुराना हो जाता है।

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  3. Sahi pakde hain Manoj Bhai... Hindi ki bilkul yahi Jung hain... Jiss se jeetne ke baad poore "Cow Belt" ka fayeda ho sakta hai... Par mushkil yeh hai ki gine chune sahityakaron ko chhodkar koi iss jung ko ladna nahi chahta...

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    1. हम दो भाई तो हैं ना। कारवां बनता जाएगा।

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