नीतीश और लालू के बीच तुकबंदी का मुकाबला हो रहा है, वो भी होली के मौके पर नहीं, चुनाव के माहौल में। सतही तौर पर ये एक दिलचस्प और मनोरंजक चुनावी समाचार हो सकता है, लेकिन गहराई में जाकर देखें तो बदलाव का एक खूबसूरत चेहरा सामने आता है। ज्यादा पीछे जाने की ज़रूरत नहीं, 2009 के लोकसभा चुनावों को याद करिए। प्रतिपक्षी के मर्म को साधकर बयानों के ऐसे-ऐसे तीर छोड़े गए थे कि लोकतंत्र की मर्यादा तार-तार हो गई। ऐसा देश भर में हुआ था, लेकिन बिहार में तो राबड़ी देवी ने नीतीश-ललन के व्यक्तिगत रिश्तों को जनसभा में ला खड़ा किया था।