अजनबी की पहचान

Friday, September 24, 2010

वाह जनाब

नीतीश और लालू के बीच तुकबंदी का मुकाबला हो रहा है, वो भी होली के मौके पर नहीं, चुनाव के माहौल में। सतही तौर पर ये एक दिलचस्प और मनोरंजक चुनावी समाचार हो सकता है, लेकिन गहराई में जाकर देखें तो बदलाव का एक खूबसूरत चेहरा सामने आता है। ज्यादा पीछे जाने की ज़रूरत नहीं, 2009 के लोकसभा चुनावों को याद करिए। प्रतिपक्षी के मर्म को साधकर बयानों के ऐसे-ऐसे तीर छोड़े गए थे कि लोकतंत्र की मर्यादा तार-तार हो गई। ऐसा देश भर में हुआ था, लेकिन बिहार में तो राबड़ी देवी ने नीतीश-ललन के व्यक्तिगत रिश्तों को जनसभा में ला खड़ा किया था।

लोकतंत्र मर्यादा में रहकर खिलता-फलता-मुस्कुराता है , और सत्ता की राजनीति मर्यादा की सीमा पहचानती नहीं। बिहार इन दो महानुभावों के सत्ता संघर्ष में लगातार परीक्षा दे रहा है। आज भी जातिवाद, बाहुबल और परिवारवाद के घातक हथियार खुलकर इस्तेमाल किए जा रहे हैं, लेकिन लगता है लोकसाही की घड़ी में जमा हुआ परिवर्तन का पेंडुलम अब हिलने लगा है। जिस बिहार में चुनाव का नाम लेते ही तमंचे,देसी बम और मुंह पर कपड़ा लपेटे हुए अपराधियों की तस्वीर उभरती थी, उसी बिहार में कविताई चुनाव का मोमेंटम तैयार कर रही है। ये राजनीतिक साहित्य साहित्य तो नहीं है, लेकिन इसमें भी रस है। होने को ये भी चुनावी बयानबाजियां हैं, लेकिन इनमें वो कड़वाहट नहीं जो भय और वितृष्णा पैदा करे, जिनेक चलते गर्दन घुमा लेने की मजबूरी पैदा हो जाती थी। बिहार में इस बार का चुनावी माहौल पहले के मुकाबले बदला-बदला सा है, ये उसका एक नमूना है। मैदान वही है, मगर बाजी नई है और बिसात भी नई है। तल्खी घटेगी तो मन हल्का रहेगा। मन हल्का रहेगा तो इनके-उनके-सबके हाथ कुछ अच्छा गढ़ेंगे।
इसे खयाली ही सही मगर आशावाद ही मानिए। कविता पर वाह-वाह कहना पड़ेगा।

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