अजनबी की पहचान

Wednesday, September 29, 2010

बिहार शायनिंग-नीतीश का फील गुड

अबकी बारी, कौन बिहारी


2004 के आम चुनावों में अटल जी के प्रधानमंत्रीत्व और नेतृत्व में, एनडीए इंडिया शायनिंग कैंपेन पर सवार होकर मैदान में उतरा और औंधे मुंह गिरा। भले उसकी यादें धूमिल हो गईं हों, लेकिन भारत के चुनावी इतिहास में ये एक ऐसी घटना थी, जिसने सेफोलॉजिस्ट बिरादरी को बगले झांकने पर मजबूर कर दिया था। चुनावी विश्लेषण के महापंडितों ने भी नहीं सोचा था कि देश के सर्वाधिक लोकप्रिय प्रधानमंत्रियों में से एक, अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाले एनडीए कि नियति में ऐसी दुर्गति बदी है। इसका कोई संतोषजनक विश्लेषण आज तक सामने नहीं आया है। चुनावी अभियान में शायनिंग शब्द का दोबारा इस्तेमाल नहीं हुआ है। बिहार में एनडीए गठबंधन ने भी शायनिंग शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है, मगर नीतीश के जनसंपर्क का भाव कमोबेश यही है - बिहार शायनिंग।
लेख का आशय कोई भविष्यवाणी करना नहीं, बल्कि कुछ परिस्थितियों की तरह ध्यान खींचना है। प्रचार माध्यमों में पांच सालों के विकास का वर्णन और नीतीश जी का सम्भाषण बरबस उन दिनों की याद दिला देता है, जब इंडिया शायनिंग देश का सबसे लोकप्रिय नारा था। कहते थे आज भारत को दुनिया में प्रतिष्ठा की नजर से देखा जाता है, आज कहते हैं कि बिहार से बाहर रहने वाले लोग अब फख्र से बताते हैं कि हां जी, मैं बिहारी हूं। बात तब भी सड़कों की चर्चा से शुरू होती थी। आज पांच साल बनाम पंद्रह साल की बात होती है, उस वक्त पांच साल बनाम पचास साल की चर्चा थी। उस वक्त भी किसी को इस बात पर ऐतराज नहीं था कि देश में गुजराल और देवेगौड़ा के वक्त की निराशा से बाहर निकला है, ठीक उसी तर्ज पर नीतीश कुमार को लालू के कार्यकाल के बरअक्स रखकर देखा जा रहा है। कांग्रेस को तब भी पुरानी ताकत जोहती देश की सबसे पुरानी पार्टी की तरह देखा जा रहा था, आज बिहार में भी कमोबेश पार्टी की वही स्थिति है। एनडीए गठबंधन एक बार फिर से फील गुड का दावा कर रहा है। नीतीश हर जगह ये सबक बांटते फिर रहे हैं कि बिहार में फील गुड है, विकास है, सुशासन है। ये सब इसलिए है क्योंकि हम हैं, हम नहीं तो अंधेरा है। कहां तो लालू नीतीश पर सार्थक हमले करते, यहां तो नीतीश ही प्रतिपक्षी पर हमले कर रहे हैं, उसका डर दिखा रहे हैं। आखिर क्यों ? क्या वाकई बिहार में विकास की लहर है ? क्या वाकई नीतश को लग रहा है कि उन्होंने इतना काम कर दिया है कि लोग उन्हें गंवाना नहीं चाहेंगे ?
भीतरखाने नीतीश कुमार ने जातिय समीकरण दुरुस्त करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है, लेकिन लालू इस मामले में चैंपियन हैं और जाति को लेकर बिहार की जनता हमेशा से सचेत रही है। चुनाव के वक्त फैसले काफी हद तक हवा के रुख पर निर्भर करते हैं। मुख्तसर ये कि नीतीश मानते हैं कि अगर संदर्भ विकास का रहेगा तो हवा उनकी तरफ बहेगी। इसलिए वो सब को सलाह देते हैं कि बिहार के चुनाव को विकास के चश्मे से देखा जाए।
अगस्त में नीतीश कुमार ने अपने ब्लॉग पर लिखा है कि बिहार चुनाव में विकास जाति के मुद्दे पर भारी पड़ेगा। प्रमाणस्वरूप वो बिहार के संदर्भ में 2009 के लोकसभा चुनावों का उदाहरण देते हैं। उनके मुताबिक एनडीए को 40 में से 32 सीटों पर सफलता इसलिए मिली क्योंकि लोगों ने राज्य सरकार के विकास कार्यों से प्रभावित होकर मतदान किया, न कि जाति के आधार पर। उनके मुताबिक स्थानीय निकायों में 50 फीसदी आरक्षण महिलाओं के मतदान संबंधी व्यवहार में भी बदलाव लाएगा। वो अब अपनी सोच-समझ के मुताबिक मतदान करेंगी और इस मामले में पुरुषों का पिछलग्गुपन छोड़ देंगी। सरकार की दी हुई साइकिल से स्कूल जाती लड़कियों को देखकर महसूस किया जा सकता है कि महिलाओं में अपने हक के प्रति चेतना जागी है। नीतीश कुमार को युवा मतदाताओं पर भी बहुत भरोसा है कि वो राजनीति के प्रति परंपरागत सोच से आगे निकलकर विकास के लिए मतदान करेंगे। कुल मिलाकर नीतीश कुमार ये मनवाना चाहते हैं कि बिहार की सोच के केन्द्र में अब विकास है, न कि जातिवाद।
यहां पर दो सवाल – क्या बिहार की सामाजिक-आर्थिक जकड़बन्दी इस हद तक टूट चुकी है कि अब लोग पुरानी सोच बदल देंगे?
दूसरा, अगर सोच बदल भी गई है तो क्या बिहार में विकास के बारे में सोचने का मतलब है नीतीश कुमार और एनडीए गठबंधन के बारे में ही सोचना ?
सवालों का जवाब – हां या ना में नहीं हो सकता।
सड़क,बुनियादी शिक्षा,स्वास्थ्य,प्रशासन और कानून-व्यवस्था जैसे कुछ क्षेत्रों में काम हुआ है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन क्या बिहार की मौलिक आर्थिक समस्याओं के क्षेत्र में भी कुछ काम हुआ है। भूमि सुधार, कृषि सुधार, औद्योगिकरण, पूंजी निवेश, नई अर्थव्यस्था के साथ जोड़ने वाले उपाय, सेवा क्षेत्र, व्यावसायिक शिक्षा, रोजगार जनन, बिजली, सिंचाई, बाढ़ नियंत्रण – ऐसे अनेक विषय हैं जिनकी चर्चा सिर्फ औपचारिकता के तौर पर हुई है। ऐसे में राज्य की पचासी फीसदी ग्रामीण आबादी में किस हद तक फील गुड पैदा हुआ होगा, इसपर अपने-अपने हिसाब से अनुमान लगाए जा सकते हैं। बिहार के सामाजिक ढांचे में पिछले दो दशकों में परिवर्तन हुआ है। विश्लेषक मानते हैं कि अब लोग इस परिवर्तन के आर्थिक निहितार्थ चाहते हैं । इसके लिए जिस अनुपात में आर्थिक प्रगति होनी चाहिए, वो नहीं हुई है। अटकी हुई अर्थव्यवस्था को एक जोरदार धक्के की ज़रूरत है। साथ-साथ प्रगति को विकास में ढालने और समाज के हर कोने तक पहुंचाने की चुनौती अलग से है। इसके बगैर आम लोगों से ये उम्मीद करना कि वो सोचने का परंपरागत तरीका छोड़ देंगे या फिर उससे बहुत आगे निकल आएंगे, उचित नहीं है। बिहार जिस व्यवस्था में जीने का आदी है, उसमें वोट को एक सामाजिक-राजनितक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने की परंपरा है। इसलिए विकास के प्रति नई सोच इस बात पर निर्भर करेगी कि गांव में बैठे व्यक्ति ने इसे कितना और किस रुप में महसूस किया है।
अगर वोटर ने विकास के नजरिए से देखा भी तो क्या उसको सिर्फ नीतीश कुमार नजर आएंगे ? 2005 के दूसरे चुनाव में विकास के नारे को नीतीश कुमार ने हवा दी थी और लगभग उसी वक्त अपने पुराने किए पर माफी मांगने के अंदाज में लालू ने भी विकास की अनिवार्यता को स्वीकार किया था। इसमें कोई दो राय नहीं कि नीतीश के पास दिखाने के लिए पांच साल का कार्यकाल है, लेकिन ग्रामीण बिहार की तस्वीर आज भी बदरंग है। सबसे बड़ी बात ये है कि विकास की जो तस्वीर समग्र रूप में प्रस्तुत की जा रही है, वो लोगों को स्थानीय स्तर पर किस हद तक सही लग रही है, ये कहना बड़ा मुश्किल है। कई जगहों पर सत्तापक्ष के विधायकों के प्रति भारी रोष है। नीतीश कुमार ने नौकरशाही के आगे विधायकों को भी बेबस करके रखा, कार्यकर्ताओं की तो बात ही क्या है। ऐसे में स्थानीय पेचीदगियों और नीतीश की छवि के बीच की जंग में कौन जीतेगा, साफ तौर पर कहना मुश्किल है। पिछले साल बिहार की अठारह विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजों को भूलना नहीं चाहिए।
ये सही है कि नीतीश कुमार ने विकास की रुकी हुई गाड़ी को चालू कर दिया है, मगर वो इसको बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहे हैं। उन्हें इसमें फायदा नजर आ रहा है, मगर इसमें छिपी नुकसान की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता।
अपने अजब लोकतंत्र की गजब कहानी ये है कि नेता लोग यहां हाथ जोड़कर वोटों की भीख मांगते हैं, फिर सीने पर चढ़कर राज करते हैं। लोग गरिया लेते हैं और अपने-अपने काम में लगते हैं। दावेदारी करने पर लोगों को शक होने लगता है और इस ताक में बैठे लोगों की कमी नहीं है। पिछले चुनाव में नीतीश ने हाथ जोड़कर वोट मांगे थे, अब दावेदारी कर रहे हैं।
आखिरी बात – ये बिहार है - राजनीति की पाठशाला। पाठशाला में सबक देना टीचर का काम है, यानि जनता का, विद्यार्थी का नहीं।

1 comment:

  1. Nitish has killed RTI in Bihar by an illegal rule. Only a fool can hope a SUSHASHAN without RTI, an essential tool for Transparency and Accountabily

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