अजनबी की पहचान

Friday, October 1, 2010

अयोध्या विवाद - एक ग्रंथि

अयोध्या


आधुनिक राष्ट्रराज्य के तौर पर भारत की राजव्यवस्था और धर्म के संबंध की परिभाषा अगर नागरिक तय करेंगे तो देश को सांप्रदायिकता की जटिल व्याधि से मुक्ति मिलेगी। इसके लिए अयोध्या जैसी ग्रंथियों की छोटी-बड़ी शल्य चिकित्सा ज़रूरी है। चिकित्सा शास्त्र का सामान्य सिद्धांत है - शल्य चिकित्सा से पहले और बाद में रक्तचाप सामान्य रहा तो व्याधि से राहत मिलेगी, असामान्य हुआ तो प्रक्रिया घातक साबित होगी। और शल्य-कार्य विशेषज्ञ के हाथों होना चाहिए- जैसे कि विवाद की व्याधि में न्यायाधिकरण, ना कि कोई स्वयंभू ध्वजाधारी। 30 सितंबर को भय के बावजूद राष्ट्र का रक्तचाप सामान्य रहा, और न्यायाधीशों के काम से राहत मिली। तीन महीने आराम करने का चिट्ठा तो न्यायाधीशों ने ही लिख दिया है। फिर प्रक्रिया आगे बढ़ाइये।


अयोध्या के विवाद में न्यायिक प्रक्रिया अभी जारी है, लेकिन हाईकोर्ट के फैसले ने एक पड़ाव तो पार करवा ही दिया है। विवाद हमने पैदा नहीं किया, लेकिन हम इसे ढो रहे हैं, इसकी कीमत चुका रहे हैं। हमें नहीं मालूम था कि हम इसे सुलझा भी पाएंगे या नहीं। शायद इसीलिए हमने खुद से एक बार फिर ईमानदारी से सवाल किया कि क्या हम एक धर्मनिर्पेक्ष राष्ट्र राज्य हैं ? देश के सबसे उलझे हुए मसले से जिस गर्मजोशी से हमने आंखें मिलाई, उससे उत्साह मिलता है। सतह पर दिख रही बेचैनी की तह में झांककर देखने की हिम्मत मिलती है।

राष्ट्र का नैतिक विवेक नागरिक के व्यवहार में परिलक्षित होता है। इसबार भी हमने मतभेदों को छोड़ा नहीं, मगर एक दूसरे को भला-बुरा कहते हुए भी, अपना-अपना नफा-नुकसान देखते हुए भी, हम सब इकट्ठा हुए। हमारी धड़कने तेज नहीं हुईं, जमीं भी नहीं और हमने फैसला सुना। सबकुछ पाया भी नहीं, सबकुछ गंवाया भी नहीं और हमें याद रहा कि आगे बढ़ना है।

पहली बार लग रहा है कि राष्ट्र को आस्थावान रखते हुए भी धर्मनिर्पेक्ष बनाने और बनाए रखने की जिम्मेदारी उठाने को हम तैयार हैं। पहली बार ऐसा महसूस हुआ कि एक लोकतांत्रिक राष्ट्र राज्य के रूप में भारत की धर्मनिर्पेक्षता गतिरोधों के आने से मजबूत होती है, बशर्ते कि नागरिक धर्मनिर्पेक्षता को ही एक गतिरोध न माने। पहली बार महसूस हुआ कि हम जो हैं, जैसे हैं, उसी रूप में खुद को स्वीकार करते हैं। इसीलिए किसी ने हमें हांकने की हिम्मत नहीं की, हम हाईकोर्ट पर टकटकी लगाकर बैठ गए। उठे तो मन हल्का था।   

वक्त के साथ हम एक राष्ट्र के रूप में परिपक्व हो रहे हैं, लेकिन मौलिक प्रतिभा से सम्पन्न नेतृत्व के अभाव में जी रहे हैं। हम सामान्य लोगों के हाथ में अपनी बागडोर सौंप रहे हैं और वो राजव्यवस्था का इस्तेमाल हमारी ज़रूरतों के हिसाब से नहीं, बल्कि अपनी सुविधा के हिसाब से कर रहे हैं। धर्म के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है।   

दुनिया भर में संप्रदायों के टकराव का इतिहास प्रकारान्तर से सत्ता के संघर्ष की कहानी है। इसी तरह से धर्म का प्रचार-प्रसार भी सत्ता के साथ प्रत्यक्ष जुड़ा हुआ दिखाई देता है। इस लिहाज से राजव्यवस्था का धर्म से संबंध जितना पुराना है, उतना ही गहरा भी। मगर लोकतांत्रिक व्यवस्था में राज्य नागरिकों से है, नागरिक राज्य से नहीं। शासन की वैधता नागरिकों के प्रसाद से प्राप्त होती है, ईश्वरीय प्रसाद का दावा करने से नहीं । इसलिए राजव्यवस्था धर्मनिर्पेक्ष है। अब धर्म के क्षेत्र में सक्रिय लोगों को चाहिए कि वो धर्म प्रचार के वैकल्पिक तरीके अपनाएं और राजव्यवस्था से जुड़े लोगों को चाहिए कि नागिरकों से वैधता हासिल करने के लिए धर्म का इस्तेमाल बंद करें। ये अपने युग की चुनौती स्वीकार करने के जैसा है और इसके लिए मौलिक प्रतिभा की ज़रूरत है।

आइये मौलिक प्रतिभाओं की तलाश करें – अपने-अपने धर्म के क्षेत्र में भी और सबकी साझा राजनीति के क्षेत्र में भी। 

2 comments:

  1. अयोध्या मामले में जो फैसला आया है.. वह फैसला कम panchayti jyada है... lambi sunvayee ke baad hame faisle ki ummid thee.....
    aapne sahi kaha है ki hum paripakva hue hain.....par 30 september ko dar ke mahaul ko bhi yaad kariye....mera maanana hai ki abhi hame aur paripakwa hone ki jaroorat hai.....

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  2. मनोज जी ,
    कहने को लोकतंत्र है लेकिन हम बेहद लाचार , निरीह और एकाकी हैं . हम डरकर घरो में दुबके रहे और यह सोचकर खुश हो लिया कि शांति रही . यह लाचारगी है कोई पौरुष नहीं ...ख़ुशी हुई कि आप आशावादी है ..चलिए सबका अलग अंदाज है , अलग नजरिया है , अदाएं है . अभिव्यक्ति के तरीके है .. आपके संतोषी होने से ख़ुशी है कि कही तो कुछ रौशनी देखी है आपने ..अल्ला खैर करे .. आपके विचार अछे लगे ... अगर वाजिब समझे तो मेरे इस ईमेल में अपने लेख भेज दिया करे ..yogeshkislaya@gmail.com

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