अजनबी की पहचान

Wednesday, September 29, 2010

बिहार शायनिंग-नीतीश का फील गुड

अबकी बारी, कौन बिहारी


2004 के आम चुनावों में अटल जी के प्रधानमंत्रीत्व और नेतृत्व में, एनडीए इंडिया शायनिंग कैंपेन पर सवार होकर मैदान में उतरा और औंधे मुंह गिरा। भले उसकी यादें धूमिल हो गईं हों, लेकिन भारत के चुनावी इतिहास में ये एक ऐसी घटना थी, जिसने सेफोलॉजिस्ट बिरादरी को बगले झांकने पर मजबूर कर दिया था। चुनावी विश्लेषण के महापंडितों ने भी नहीं सोचा था कि देश के सर्वाधिक लोकप्रिय प्रधानमंत्रियों में से एक, अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाले एनडीए कि नियति में ऐसी दुर्गति बदी है। इसका कोई संतोषजनक विश्लेषण आज तक सामने नहीं आया है। चुनावी अभियान में शायनिंग शब्द का दोबारा इस्तेमाल नहीं हुआ है। बिहार में एनडीए गठबंधन ने भी शायनिंग शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है, मगर नीतीश के जनसंपर्क का भाव कमोबेश यही है - बिहार शायनिंग।

Friday, September 24, 2010

वाह जनाब

नीतीश और लालू के बीच तुकबंदी का मुकाबला हो रहा है, वो भी होली के मौके पर नहीं, चुनाव के माहौल में। सतही तौर पर ये एक दिलचस्प और मनोरंजक चुनावी समाचार हो सकता है, लेकिन गहराई में जाकर देखें तो बदलाव का एक खूबसूरत चेहरा सामने आता है। ज्यादा पीछे जाने की ज़रूरत नहीं, 2009 के लोकसभा चुनावों को याद करिए। प्रतिपक्षी के मर्म को साधकर बयानों के ऐसे-ऐसे तीर छोड़े गए थे कि लोकतंत्र की मर्यादा तार-तार हो गई। ऐसा देश भर में हुआ था, लेकिन बिहार में तो राबड़ी देवी ने नीतीश-ललन के व्यक्तिगत रिश्तों को जनसभा में ला खड़ा किया था।

Thursday, September 2, 2010

'कृस्न भगवान, साल भर नीके-सुखे पार लगावस'

जय कन्हैया लाल की
मांगकर पाई गई जिम्मेदारी के बोझ तले मैं शायद रात भर उनिंदा सा रहा। तड़के चार बजे फूल तोड़ने जाना था। चार बजे इसलिए कि किसी की नजर पड़ने से पहले फूल अपनी थैली में आ जाए। जन्माष्टमी के झूलन में सजावट के लिए ज्यादा से ज्यादा फूल जमा करने होंगे। तो सुबह उठिए, आंख मलते हुए कपड़े की थैली उठाईये और देखिए 'चिम्पिया' उठा कि नहीं। वो उठा हुआ ही मिलता। चलो सबसे पहले फॉरेस्ट ऑफिस, वहां सबसे ज्यादा फूल हैं। कॉलोनी के लोग तो फूल तोड़कर खुद दे जाते हैं। वैसे फॉरेस्ट ऑफिस में रखवाली के लिए माली भी तो होता और गार्ड भी, लेकिन हमारे लिए अपना 'डिपाटमेंट' था। सपसे पहले 'बैजन्ति माला' जमा कर लो, उसके बाद ऊड़हुल और 'चीरा-मीरा',अगस्त, अपराजिता जो-जो मिल जाएं। गेंदा बरसात में नहीं होता था। उसका इस्तेमाल छब्बीस जनवरी के झंडे में होता था। खैर छोड़िए झंडा-पताका बाद में। अभी झूलन की तैयारी सिर पर है। तो फूल तोड़िए और थैली में भरिए। ये स्पेशल पूजा वाली थैली है। पुराने पैंट को काटकर बनती थी, कपड़े की थैली। सब्जी-भाजी, राशन पानी सब उसी में भरकर आता था। थैली क्या थी, अन्नपूर्णा थी साक्षात - कभी-कभी उसके अंदर से ही 'गुलजामून और कालाजामुन' भी निकलता था। लेकिन पूजा वाली थैली अलग रहती थी। सिर्फ पूजन सामग्री के लिए अलग। प्लास्टिक के बैग उस वक्त बहुत कम चलन में थे। झोली में फूल भरने के बाद सीधा घर पहुंचिए। फूल रखिए, अगर उपवास नहीं किया है तो नाश्ता-पानी का जोगाड़ देखिए,उपवास किया है तो कलाकंद खाकर पानी पी लीजिए, और फिर जुटिए नौ बजते सबके घर साड़ी का 'तगादा' कर देना है।

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