अजनबी की पहचान

Thursday, July 22, 2010

शायद,कोई देखने आ जाए!


"बाबू जी चढ़लन की ना" इन्हीं शब्दों के साथ शुरू होती थी हमारी मंगरॉंव यात्रा। "हां-हां!" करती हुई बिहार राज्य पथ परिवहन निगम की लाल पट्टियों वाली बस हज़ारीबाग डिपो के गेट नंबर दो की तरफ रेंगने लगती। फिर बरही,चौपारण और बाराचट्टी में रूकते-चालान लेते पहुंचती शेरघाटी। हमारे लिए यात्रा का खास आकर्षण हुआ करता था शेरघाटी के होटल का खाना- दाल-भात,आलू की भुजिया,सब्जी,प्याज और पापड़। 'होटल का खाना'- इतने में ही जो संतुष्टि मिलती थी उसे जायका किस मुंह से कहूं। फिर गाड़ी खुलती तो रफीगंग,औरंगाबाद के रास्ते डेहरी-ऑन-सोन तक जाती। वहां से दूसरी बस नासरीगंज तक। बड़का बाबूजी बारहो मास नासरीगंज आते थे।

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