अजनबी की पहचान

Thursday, September 2, 2010

'कृस्न भगवान, साल भर नीके-सुखे पार लगावस'

जय कन्हैया लाल की
मांगकर पाई गई जिम्मेदारी के बोझ तले मैं शायद रात भर उनिंदा सा रहा। तड़के चार बजे फूल तोड़ने जाना था। चार बजे इसलिए कि किसी की नजर पड़ने से पहले फूल अपनी थैली में आ जाए। जन्माष्टमी के झूलन में सजावट के लिए ज्यादा से ज्यादा फूल जमा करने होंगे। तो सुबह उठिए, आंख मलते हुए कपड़े की थैली उठाईये और देखिए 'चिम्पिया' उठा कि नहीं। वो उठा हुआ ही मिलता। चलो सबसे पहले फॉरेस्ट ऑफिस, वहां सबसे ज्यादा फूल हैं। कॉलोनी के लोग तो फूल तोड़कर खुद दे जाते हैं। वैसे फॉरेस्ट ऑफिस में रखवाली के लिए माली भी तो होता और गार्ड भी, लेकिन हमारे लिए अपना 'डिपाटमेंट' था। सपसे पहले 'बैजन्ति माला' जमा कर लो, उसके बाद ऊड़हुल और 'चीरा-मीरा',अगस्त, अपराजिता जो-जो मिल जाएं। गेंदा बरसात में नहीं होता था। उसका इस्तेमाल छब्बीस जनवरी के झंडे में होता था। खैर छोड़िए झंडा-पताका बाद में। अभी झूलन की तैयारी सिर पर है। तो फूल तोड़िए और थैली में भरिए। ये स्पेशल पूजा वाली थैली है। पुराने पैंट को काटकर बनती थी, कपड़े की थैली। सब्जी-भाजी, राशन पानी सब उसी में भरकर आता था। थैली क्या थी, अन्नपूर्णा थी साक्षात - कभी-कभी उसके अंदर से ही 'गुलजामून और कालाजामुन' भी निकलता था। लेकिन पूजा वाली थैली अलग रहती थी। सिर्फ पूजन सामग्री के लिए अलग। प्लास्टिक के बैग उस वक्त बहुत कम चलन में थे। झोली में फूल भरने के बाद सीधा घर पहुंचिए। फूल रखिए, अगर उपवास नहीं किया है तो नाश्ता-पानी का जोगाड़ देखिए,उपवास किया है तो कलाकंद खाकर पानी पी लीजिए, और फिर जुटिए नौ बजते सबके घर साड़ी का 'तगादा' कर देना है।
नौ बजे के अभियान की पृष्ठभूमि में दीदी लोग की सजावट योजना होती थी।धोए हुए कमरे में चौकी को धो-पोंछकर उसके चारों कोनों पर डंडे खड़े किए जाएंगे। ये मच्छरदानी लटकाने वाले बांस के डंडे होते थे। बाद में अल्युमीनियम की पाइप ने बांस की जगह ले ली। इसी फ्रेम पर साड़यों से एक अस्थायी मंदिर का निर्माण होता था। तो मंदिर बनाने के लिए जाओ मांग लाओ, हर घर से एक साड़ी। कोई चाहे तो अपनी खुशी से दो दे दे, कोई दिक्कत नहीं, लेकिन एक भी साड़ी नहीं दी तो शिकायत की पात्र बनेगी। वैसे शिकायत साड़ी देने के बाद भी होगी। 'देखिए ना कइसन 'उस्सठ' साड़ी दे दी है, हमको तो लगाने का मन भी नहीं कर रहा है' - बुलू दीदी।

ग्यारह-बारह बजे से चौकी पर मंदिर निर्माण का काम शुरू होता। बांस पर सूतरी से फ्रेम बनाना कोई आसान काम नहीं है। सब तैयार करके साड़ी टिकाने लगिएगा तो 'भसक' जाएगा। साड़ियों से चौकी पर मंदिर तैयार का आकार खड़ा करना भी कठिन काम है। चून दे देकर साड़ी लटकाओ, पेपर पिन से लॉक करो। मैं छोटा था तो इस काम में सिर्फ मदद कर सकता था - जैसे कि पेपर पिन का डब्बा पकड़कर खड़े रहना। मेन काम करती थी - रेखा दी,रजनी दी,गुड्डो, बुलु दी,पुतुल दी,बेबी वगैरह। तीन-चार बजे तक मंदिर बनकर तैयार हो जाता था।

लड़के बच्चे पांच बजते-बजते जुटने लगते। शुरू हो जाती - 'लुका-चोरी','छुआ-छुई','डेंग-पानी'। सात बजे तक कॉलोनी की सभी औरतें-बच्चे हमारे घर। घरों के मुखिया देर से आते - नौ बजे के आसपास। रात के बारह बजे तक भजन-कीर्तन और कृष्णा के पैदा होने का इंतजार। हमारे घर का बैंजो आज 'हनट के' बजाया जाएगा। उसके तार टूटेंगे, तभी जान छूटेगी। कॉलोनी के स्तर पर गायन कला के प्रदर्शन का ये अच्छा मौका था।

'हरि जी के हो नाम, मन करे जपते हो रहितिं।' कीर्तन के ये बोल बार-बार दोहराए जाते। अल्युमीनियम की औंधी देकची पर ठेका 'धाचिक-धीचिक' और 'ठप-ठप' एक साथ सबकी ताली । ताल तेज, बोल तेज, और तेज , और तेज। बैजो बेचारा साथ में -
'टिन टिन टिन टिन टिन टिन, टिन टिन टिन टिन टिन टिन टिन टिन टिन टिन टिन।' टांन की आवाज के साथ अचानक खामोश हो जाता। भजन-कीर्तन के अलावा फिल्मी गाने भी चलते थे - शर्त ये थी कि बोल में एक बार कृष्ण का नाम हो। साल दर साल हिट रहे कुछ नंबर और उसके कलाकार -
1- जशोमती मइया से बोले नंदलाला, राधा क्यों गोरी मैं क्यों काला - पुतुल दी।
2- मच गया शोर सारी नगरी रे - सुब्बु।
3- ऊं हरि सुन्दर, हरि ऊं सुन्दर - भइया।
4-कृष्णा आप बसे वृन्दावन में, मेरी उमर गुजर गई गोकुल में - रेखा दी,रजनी दी।
5-सत्यम शिवम सुन्दरम - कोरस।
6-कृष्णा धरती पे आजा तू- कोरस।
मेरी स्मृतियों की सीमा है, वर्ना ये लिस्ट बहुत लम्बी है।

ग्यारह बजे तक लड़के-लड़कियों का स्टॉक फिनिश। बीच-बीच में कांय-कांय करने वाले बहुत छोटे बच्चे वहीं दरी पर ढेर हो जाते थे। तब मिलता था असली भक्तों को 'चानस'। माय-चाची धीमे-धीमे कीर्तन गातीं और बचे-खुचे कव्वाल उनका साथ देते। धीरे-धीरे भोग का सामान भगवान के सामने खोलकर रखा जाने लगता - साबुदाने की खीर, सिंघाड़े का हलवा, भूरे रंग का चूरन , केला,सेव,अमरुद, नास्पति इत्यादि। साल भर में इकलौता उपवास रखने वालों की भूख आंखों में उतर आती। सभी लोग बार-बार घड़ी देखते। जिसे देखते हुए देख लिया जाता, उसपर टोंट - 'भूख बर्दास नहीं हो रहा है का।' बाहर बरामदे में बाबूजी-चचा लोगों की महफिल भी बहस समेटने की मुद्रा में आ जाती। बारह बजे सब साथ मिलकर आरती करते। फिर जयकारा लगता। ये भगवान लोग एक दर्जन नाम रखते हैं। भूख पेट में कुलांचे मार रही है और कम से कम तीन मिनट ये जयकारा ले लेगा - वृंदावन बिहारी लाल की जय, जसोदा नंदन की जय, देवकी नंदर की जय, नंद के लाल की जय, बाल गोपाल की जय....जय...जय...जय। चलो भाई हो गई पूजा सम्पन्न,उपवास का वक्त खत्म। पहले 'चनामृत'(चरणामृत) ले लो, फिर उसके बाद जो खाना है खाओ ।

लेकिन ये क्या, दिन भर के उपवास के बाद मौका मिला है तो खाने का मन नहीं कर रहा है।
' साबूदाना-हलुआ केतना खाएं। रोटी-सब्जी खा लें?'
'इ ल, दिन भर उपासे रह के अब काहे के भरस्ट कर रहे हो।'
'अच्छा खा ले, लइका-फइका के कौनो दोष ना होखे।'

चलो भइया, जन्माष्टमी का उत्सव समाप्त। अब फिर अगले साल।
'कृस्न भगवान, साल भर नीके-सुखे पार लगावस'- मां।


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4 comments:

  1. शानदार सर....... ऐसा लगा ऑनलाइन पूजा कर लिये......... जय श्री कृष्णा..

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  2. बहुत बढ़िया ...छोटे शहरो में होनेवाली जन्माष्टमी का सजीव वर्णन है

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  3. Manoj Ji, Aapke ghar ki pooja main indradhanush serial ki tarah wapas pahunch gaye aur fir ye aankhon-dekha haal,live show bahut hi bhav-vibhor karne wala hai!!!!!

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  4. महाशय
    अति सुन्दर
    रचना दिल को छू गई।

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