अजनबी की पहचान

Tuesday, December 9, 2014

स्थायित्व : कितनी दूर, कितने पास

चुनाव का वक्त आते-आते झारखंड में लगभग सभी पक्षों ने एक तरह से स्वीकार कर लिया है कि झारखंड की तमाम नाकामियों और समस्याओं का ठीकरा सत्ता में स्थायित्व की कमी के सिर फोड़ा जा सकता है. यही वजह है कि वैसी पार्टियां भी जनता से पूर्ण बहुमत की मांग कर रही हैं, जिन्हें दो अंकों में पहुंचने का भरोसा नहीं है. इसके पीछे दो बातें साफ तौर पर दिखाई देती हैं. एक तो गठबंधन की राजनीति को अस्थायित्व की मुख्य वजह बताने की बेताबी और दूसरे, 2003 के बाद से अस्थायित्व की आड़ में जारी कुशासन और स्वार्थ पूर्ति के खेल को वैधता प्रदान करना. प्रकारान्तर से यह लूटने की आजादी का जनादेश मांगने जैसा है. बहुत बड़े तबके के लिए साफ संदेश है कि जब लूटना ही है तो हमें मौका दीजिए क्योंकि आपकी और हमारी पहचान एक है. यह पहचान जाति भी हो सकती है, धर्म भी, सम्प्रदाय भी और सोच भी. 
दूसरी तरफ देश का प्रधानमंत्री झारखंड की जनता से सीधे संवाद कर रहा है. बीच में कोई बिचौलिया नहीं है. वह कह रहा है कि झारखंड की क्षमता पर किसी को संदेह नहीं है, परन्तु यहां शासन चलाने वालों की क्षमता संदेह के घेरे में है. चौदह साल में ज्यादातर अर्सा बीजेपी सत्ता में रही है. फिर भी पार्टी के पास एक अदद चेहरा नहीं है तो मतलब साफ है कि ब्रांड मोदी जोखिम उठाने को तैयार नहीं है. प्रधानमंत्री जनसभा में खुले मंच से कह रहे हैं कि आप मुझे मौका दीजिए, मैं झारखंड की तस्वीर संवारुंगा. लोकतंत्र में यह एक विचित्र स्थिति है जहां प्रधानमंत्री भी एक राज्य की जनता से विकास की पूर्व-शर्त के तौर पर पूर्ण बहुमत वाली स्थायी सरकार की मांग कर रहा है.
देश-काल की सीमा से परे एक सच यह है कि सत्ता में स्थायित्व का सिर्फ एक आनुपातिक महत्व है. सत्ता के सुचारू कामकाज के लिए स्थायित्व एक कारक हो सकता है, लेकिन एकमात्र कारक नहीं. एक अनुपात से उपर यह घातक होता है. लोकतंत्र की खासियत है एक निश्चित अवधि के लिए मिलने वाला जनादेश. संसदीय प्रणाली में यह चुने गए विधायकों को तय करना होता है कि पांच साल तक उन्हें किस प्रकार सरकार चलानी है और किस तरह सरकार के लिए प्रतिपक्ष तैयार करना है. हमारा लोकतंत्र दलीय कैसे हुआ यह अलग से बहस का विषय है लेकिन दलीय बाध्यताओं के नाम पर जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ने वाले विधायकों को इस बात का जवाब देना चाहिए कि अपनी सुविधा के लिए दलों की सीमा लांघने में उन्हें क्यों हिचकिचाहट भी नहीं होती.  

थोड़ी उलझन वाली बात है. एक तरफ गठबंधन की राजनीति को दोष देकर, स्वार्थ को वैधता प्रदान करने की कोशिश की जा रही है और डंके की चोट पर लूटने की छूट मांगी जा रही है तो दूसरी तरफ प्रधानमंत्री राज्य की बागडोर मांग रहा है ताकि देश की तरक्की में झारखंड के संसाधनों का इस्तेमाल करने में कोई बाधा ना रहे. दोनों एक दूसरे को लुटेरा बता रहे हैं और पूर्ण बहुमत की मांग कर रहे हैं. गोया, पूर्ण बहुमत लाख दुखों की एक दवा हो. गठबंधन अगर इतना ही बुरा रोग है तो फिर सवाल उठता है कि चौदह साल गठबंधन की सरकारें चलाई ही क्यों गईं. एक-दो को छोड़कर ऐसा कोई दल या निर्दल नहीं जिसने गठबंधन के रास्ते सत्ता का सुख ना भोगा हो. 
अदल-बदल कर राज करो और विपक्ष में बैठने की बारी आए तो सामने वाले को चोर कहो. झारखंड के संदर्भ में एक दिलचस्प बात यह है कि यहां अभी तक मध्यावधी चुनाव नहीं हुए हैं. विधानसभा के चुनाव तय वक्त पर हुए. तात्पर्य यह है कि आप तमाम श्रीमान पांच साल तक मिल-जुलकर, अदल-बदल कर सत्ता का सुख भोगते हैं, तमाम उम्र अपनी अकर्मण्यता और स्वार्थपरकता का ठीकरा अस्थायित्व और गठबंधन की मजबूरियों के सिर फोड़ते हैं और चुनाव के वक्त एक दूसरे को सबसे बड़ा ठग और लुटेरा बताते हैं. इस वक्त भी राज्य में जेएमएम, कांग्रेस और आरजेडी के गठबंधन की सरकार है जबकि चुनाव में जेएमएम एक तरफ है तो कांग्रेस-आरजेडी दूसरीतरफ. बाबूलाल मरांडी का अलग मोर्चा है और बीजेपी-आजसू का अलग. 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी झारखंड के चुनावी परिदृश्य को एक नया और अलग आयाम दे रहे हैं इसमें कोई शक नहीं, लेकिन प्रदेश बीजेपी को इससे जोड़कर देखने से बेहतर है कि उसे अलग रखकर भी देखा जाए. मतलब, परिस्थिति का वास्तविक आकलन करने के लिए बीजेपी को जेएमएम, कांग्रेस, जेवीएम, आजसू इत्यादि की तरह रखें, फिर ब्रांड मोदी को एक बाहरी कारक की तरह आरोपित करें तो बात कुछ हद तक समझ में आती है. जाहिर है ब्रांड मोदी स्वाभाविक रूप से बीजेपी के साथ जुड़कर आगे बढ़ेगा, लेकिन उसके पहले की तस्वीर साफ-साफ दिखाई देगी. 
लोकसभा चुनाव में ब्रांड मोदी के उभरने से पहले तक झारखंड प्रदेश बीजेपी बाकी दलों के साथ उस कतार में खड़ी हो चुकी थी जो सत्ता का म्युजिकल चेयर खेल रही थी. ऐन वक्त पर उसकी जगह जेएमएम ने छीन ली और कांग्रेस जेएमएम की माइनर पार्टनर बन गई क्योंकि उसे लोकसभा चुनाव में मजबूत साथी चाहिए था. देश की जनता ने मोदी को दिल्ली की गद्दी सौंपी तो झारखंड प्रदेश बीजेपी को विधानसभा चुनावों में पूर्ण बहुमत का सपना आने लगा. चक्रवर्ती मोदी का अश्वमेध महाराष्ट्र और हरियाणा के बाद झारखंड और जम्मू-कश्मीर आया है तो इसके अपने राष्ट्रीय और क्षेत्रीय निहितार्थ हैं, लेकिन जहां तक प्रदेश बीजेपी की बात है तो वह चक्रवर्ती की सेना का हिस्सा भर है. तात्पर्य यह है कि ब्रांड मोदी एक बाहरी और बिल्कुल नए एजेन्डा के आधार पर झारखंड में वैधता चाहता है, जिसे स्वीकारना और नकारना जनता के हाथ में हैं. बाहरी-भीतरी के विवाद में बांट दी गई जनता इसे किस हद तक पचा पाएगी, यह तो वक्त बताएगा. पर चौदह साल की जड़ता को तोड़ने के लिए इससे सुनहरा अवसर अब तक नहीं आया था, यह भी लोग जानते हैं. मोदी के कहने पर जनता ने बीजेपी को पूर्ण बहुमत दे भी दिया तो ऐसा नहीं कि रामराज्य आ जाएगा लेकिन वह जड़ता अवश्य टूटेगी जिससे निकलने का रास्ता नहीं सूझ रहा था.  
दरअसल चौथी विधानसभा के चुनाव इसी जड़ता के सवाल पर लड़े जा रहे हैं. साफ तौर पर इस सवाल को सिर्फ दो लोग उठा रहे हैं  नरेन्द्र मोदी और हेमन्त सोरेन. मोदी इस जड़ता को तोड़ने की अपील कर रहे हैं और हेमन्त झारखंडियों को बाहरी लोगों के प्रति सचेत कर रहे हैं. मगर जमीनी पेचिदगियां राजनीतिक पेचिदगियों पर भारी हैं.  पांच चरणों में हो रहे चुनावों में यह तथ्य निहिति है कि झारखंड नाम की राजनैतिक-भोगोलिक इकाई के अंदर भी पांच इकाइयां हैं  पलामू और इसके जैसे लक्षणों वाला क्षेत्र, कोल्हान और इसके जैसे लक्षणों वाला इलाका, छोटानागपुर, कोयलांचल और संथाल परगना. भौगोलिक संरचना, नृजातिय विविधता और समाजार्थिक परिस्थितियां भिन्न हैं. राजनीतिक मिजाज अलग हें.     

सरकार चाहे जिसकी बने लेकिन इस बार के चुनाव में जनादेश स्थायित्व के लिए ही आएगा क्योंकि घोषणापत्रों में लिखी बातों से कहीं उपर हर दल ने स्थायित्व के महत्व को स्वीकार किया है. लोकसभा चुनाव में साठ के करीब विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त ले चुकी बीजेपी और ब्रांड मोदी पूर्ण बहुमत के सबसे बड़े दावेदार हैं तो स्थायित्व की सबसे बड़ी जिम्मेदारी भी उनकी होगी.पूर्ण बहुमत की स्थिति में भी और गठबंधन की स्थिति में भी. जेएमएम न तो पूर्ण बहुमत का दावा कर रही है और न उसे गठबंधन से परहेज है, लेकिन साल भर से कुछ ज्यादा दिन सरकार चलाकर हेमन्त सोरेन यह संदेश दे चुके हैं कि अपने पिता से उलट वह इस्तेमाल होने की बजाए जिम्मेदारी लेने में यकीन करते हैं.  

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