निराश हुई ‘ नगड़ी ’
सबने लगाया जोर लेकिन हालात जस के तस
व्यवस्था और लचर आंदोलन के बीच पिस गए गरीब आदिवासी
रांची के नगड़ी चौरा में लॉ यूनिवर्सिटी, आईआईएम और आईआईआईटी के लिए 227 एकड़
भूमि के अधिग्रहण पर कोर्ट की सख्ती और दयामनी बारला के जेल जाने के बाद रैयतों की
लड़ाई अब ठंडी होती दिखाई देती है। रैयतों का संघर्ष किसी तार्किक परिणाम तक नहीं
पहुंच पाया। आज वहां संगीनों के साये में निर्माण चल रहा है और महीनों आंदोलन
करने, लाठियां खाने और कोर्ट के चक्कर काटने के बाद नगड़ीवासी छाती पीटने को मजबूर
हैं। रैयत को जमीन वापसी से कम कुछ भी स्वीकार नहीं है, जबकि सरकार जमीन वापसी के
विकल्प पर बात करने के लिए भी तैयार नहीं। कुल मिलाकर रैयतों की जमीन जाती हुई
दिखाई दे रही है और उन्हें उचित मुआवजा भी नहीं मिल रहा है। ऐसे में सबसे बड़ा
सवाल ये पैदा हो गया है कि ‘जान देंगे पर जमीन नहीं’ का नारा जो सदियों से जनजातीय समाज को परिभाषित करता आया है – क्या अब उनके
लिए बर्बादी का सामान बन रहा है ? अगर ऐसा है तो इसके लिए
जिम्मेदार कौन है ? सवाल तो ये भी है कि झारखंडी समाज का वो हिस्सा जिसे
किसी तरह एक वक्त की रोटी मिल पा रही है, जमीन से भी जाने के
बाद क्या अस्तित्व बचाए रख पाएगा ? सैद्धांतिक असहमति के बावजूद
क्यों बार-बार कृषि योग्य जमीन का अधिग्रहण किया जाता है ?
सामाजिक संगठनों से लेकर सत्तापक्ष और विपक्ष की तमाम पार्टियों ने रैयतों से
न सिर्फ हमदर्दी जताई बल्कि उनकी लड़ाई में शामिल होने का भरोसा भी दिया। रैलियां
हुईं, बंद बुलाए गए, अनशन हुआ, लाठीचार्ज हुआ। विपक्ष और सामाजिक संगठनों ने सरकार
पर निशाना साधा तो सत्तापक्ष की पार्टियों
ने भी आंदोलनकारियों के साथ सहानुभूति जताई। इस मामले में सबसे आगे रहे
जेएमएम सुप्रीमो शिबू सोरेन। उन्होंने नगड़ी के लोगों से कहा कि वो अपना खेत
जोतें। 15 अगस्त को नगड़ी में महिलाओं ने खेतों में हल उतारा। दयामनी बारला पर अधिग्रहित
जमीन पर अनाधिकार हल चलाने का मामला चल रहा है, लेकिन ऐसा करने की छूट देने वाले
राज्य सरकार के औरपाचिरक अभिभावक शिबू सोरेन पर कोई किसी की नजर नहीं। दबाव बढ़ा
तो सरकार ने भू-राजस्व मंत्री मथुरा महतो की अध्यक्षता में एक हाई पावर कमिटी का
गठन किया। कमिटी ग्रामीणों के साथ बातचीत का व्यावहारिक माहौल भी तैयार नहीं कर
पाई। लिहाजा ग्रामीण जान-जमीन का नारा दोहराते रहे और गिनती की औपचारिक बैठकों के बाद मथुरा महतो
ने कहा कि वो इसी बात की रिपोर्ट देंगे कि ग्रामीण जमीन नहीं देना चाहते। नगड़ी
आदिवासियों की बुनियादी लड़ाई का हिस्सा है लेकिन राज्य के दो दर्जन से ज्यादा
आदिवासी विधायकों ने इसको लेकर कोई सहमति नहीं दिखाई। यही वजह है कि विधानसभा के
मॉनसून सत्र में भी मामले ने जोर नहीं पकड़ा। दरअसल, आरक्षण का लाभ लेने वाला
आदिवासी मध्यवर्ग की आदिवासी मामलों के प्रति संवदेनहीनता इस पूरे मामले में सबसे
ज्यादा खटकती है। इस पूरे मसले पर संगठित जनमत का निर्माण ही एकमात्र विकल्प है,
जो सिरे से नदारत है।
नगड़ी मामला झारखंड में अब तक आदिवासी मुख्यमंत्री की अघोषित परंपरा की पोल भी
खोलता है। आंदोलन से जुड़े लेखक कोर्नेलियुस मिंज कहते हैं कि तबीयत खराब रहने
के बावजूद मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने 23 अगस्त 2012 को सात कंपनियों के द्वारा
सरकार से किए जा रहे एमओयू कार्यक्रम में लगभग चार घंटे का समय दिया जबकि नगड़ी के
लिए आज तक पांच मिनट नहीं निकाल पाए।
क्या वजह है कि तमाम सांवैधानिक प्रावधानों और कानून के रहते झारखंड में
आदिवासी हितों की घोर उपेक्षा हो रही है? क्या वजह है कि
आदिवासी हितों के झंडाबरदार सामाजिक संगठनों और आरक्षण का लाभ लेने वाले शासकीय और
राजनीतिक वर्ग के लोगों के प्रयास दिखावा साबित हो रहे हैं ? मानवाधिकार कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग के मुताबिक यह दो असमान
आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्थाओं की लड़ाई है। एक तरफ तो जरूरत पर आधारित
अर्थप्रणाली वाला जनजातिय समाज है जो सिर्फ नैतिकता की दुहाई दे सकता है लेकिन
दूसरी तरफ ताकतवर बाजार की संस्कृति है। दरअसल, गरीब, अशिक्षित प्रकृतिपुत्र
तो आज भी ‘जान देंगे पर ज़मीन नहीं’ का नारा लगाने को मजबूर हैं क्योंकि उनके पास विकल्प नहीं है, लेकिन उनके
नारों से पैदा होने वाली आंच पर रोटी सेंकने वाला राजनीतिक वर्ग, मध्यवर्गीय
आदिवासी समुदाय और सामाजिक संगठन उनकी दुनिया के लोग नहीं हैं। जनजातियों का
नेतृत्व उनके भीतर से पैदा न होकर बाहर से आरोपित हो रहा है। जब तक जनजातिय समाज
इस बिडंबना से मुक्त नहीं होगा, उसका इस्तेमाल होता रहेगा। इस आधार पर सिर्फ एक
दयामनी बारला है जिनसे उम्मीद की जा सकती है, लेकिन शायद इसी वजह से उन्हें एक के
बाद एक मुकदमें अटकाकर जेल से निकलने नहीं दिया जा रहा है।
मिट्टी के सिपाही
अपनी जमीन बचाने के लिए नगड़ी गांव की पांच हजार से ज्यादा की आबादी किसी भी
हद तक जाने को तैयार है, लेकिन कानूनी तौर पर उलझे हुए मामले में उन्हें करना क्या
है इतनी समझ उन्हें नहीं थी। यही वजह है कि 9 जनवरी को जब धारा 144 लगाकर पुलिस
सुरक्षा में निर्माण कार्य शुरू हुआ तो आनन-फानन में फैसला किया कि ऐसे सामाजिक और
राजनीतिक लोगों को जुटाया जाए तो विस्थापन जैसे मुद्दों को लेकर लड़ते रहे हैं। 12
जनवरी को नगड़ी में एक बैठक बुलाई गई जिसमें दयामनी बारला, रतन तिर्की, प्रभाकर तिर्की,
बंधन तिग्गा, जेवियर कुजूर जैसे सामाजिक कार्यकर्ता, स्थानीय स्तर के प्रभावशाली
लोग और नगड़ी लोग शामिल हुए। इसके बाद शुरू हुआ आंदोलन जिसकी न तो रणनीति स्पष्ट
थी और ना ही नेतृत्व। सिविल नाफरमानी के विकल्प पर चर्चा जरूर हुई लेकिन शुरूआत
में धारा 144 के उल्लंघन से भी परहेज किया गया। लोकतांत्रिक अधिकारों के दायरे में
रहते हुए, धरना-प्रदर्शन, अनशन, फरियाद और ज्ञापन का लम्बा सिलसिला चला लेकिन कोरे
आश्वासनों के सिवा कुछ हासिल नहीं हुआ। जनवरी में ही मेधा पाटकर ने भी नगड़ी का
दौरा किया लेकिन इस लड़ाई में समर्थन का भरोसा दिलाकर गई तो फिर लौककर नहीं आई।
मार्च में नगड़ीवासियों का सब्र जवाब दे गया और वो अधिग्रहित बताई गई जमीन पर
अनिश्चितकालीन अनशन के लिए बैठ गए। कहीं से कोई सुनवाई नहीं हुई, अनशन लम्बा
खिंचता चला गया और राजनीति भी शुरू हो गई। जनजातीय सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बंधु
तिर्की, माले विधायक बिनोद सिंह, मासस विधायक अरुप चटर्जी सबसे पहले आने वालों में
से हैं लेकिन झारखंड को कोई राजनीतिक दल बाकी नहीं रहा। जेवीएम सुप्रीमो बाबूलाल
मरांडी ने नगड़ीवासियों के समर्थन में अनशन किया। भाजपा के पांच विधायकों ने नगड़ी
जाकर पार्टी का समर्थन जताया, कांग्रेस की गीताश्री उरांव औऱ नियेल तिर्की ने
नगड़ी वासियों के आंदोलन को समर्थन दिया और
माले ने आंदोलन के समर्थन में 25 जुलाई को झारखंड बंद तक बुलाया। 23 अप्रैल को महासभा हुई, मई में राजभवन के
सामने, अल्बर्ट एक्का चौक पर और नगड़ी में रैलियां हुईं। जून में राजभवन का घेराव
और जनी शिकार का आयोजन हुआ। दूसरी तरफ बार एसोसिएशन की जनहित याचिका पर सुनवाई
करते हुए 30 अप्रैल को हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को 48 घंटे के भीतर निर्माण कार्य
शुरू करने का आदेश दिया। आनन फानन में आंदोनकारियों ने सुप्रीम कोर्ट जाने का
फैसला किया लेकिन दस्तावेजी तैयारी इतनी लचर थी कि 28 जून को कोर्ट ने मामले को 50
साल पुराना बताकर सुनने से ही मना कर दिया। 4 जुलाई को लोगों ने आईआईएम और लॉ
यूनिवर्सिटी की निर्माणाधीन दीवार पर हमला बोल दिया। लाठीचार्ज हुआ। दर्जनों लोग
घायल हुए, तेरह लोगों पर मुकदमा हुआ और चार गिरफ्तार हुए। जुलाई में कोर्ट के ही
निर्देश पर हाई पावर कमिटी का गठन हुआ लेकिन अगस्त खत्म होने से पहले ही कमिटी से
लगी उम्मीदें भी खत्म हो गईं। फिर भी मध्य अक्टूबर तक नगड़ी आदिवासियों-मूलवासियों
के अधिकारों की लड़ाई का केन्द्र बना रहा। लेकिन 16 अक्टूबर को नगड़ी आंदोलन की
सबसे मुखर योद्धा दयामनी बारला को 2006 के एक मामले में कोर्ट में आत्मसमर्पण करना
पड़ा । तब से दयामनी जेल में हैं। एक मामले में जमानत मिलती है तो दूसरे मामले में
गिरफ्तार कर उन्हें बाहर निकलने नहीं दिया जा रहा है और आंदोलन धीरे-धीरे शिथिल
होता जा रहा है।
कैद हुई उम्मीद की किरण
दयामनी बारला 18 अक्टूबर से बिरसा मुंडा जेल में बंद है। बारला ने मनरेगा की मजदूरी
को लेकर 2006 हुए प्रदर्शन के मुकदमे में आत्मसमर्पण किया था। तब किसी ने नहीं
सोचा था कि दयामनी के खिलाफ एक के बाद एक मामले खुलते जाएंगे और उन्हें लम्बे समय
तक जेल में ही रखा जाएगा। मगर मनरेगा मामले में बेल मिलते ही बारला को नगड़ी में
अधिग्रहित जमीन पर धान रोपने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। उसके बाद अदालत की
अवमानना का मामला खुल गया। गौरतलब है कि जनआंदोलनों के दौरान हुए ये मुकदमे गड़े
मुर्दों की तरह उखाड़कर खड़े किए जा रहे हैं। दयामनी नगड़ी के आंदोलन की रीढ़ है।
लेकिन देखा जाए तो दयामनी बारला आज झारखंड में मुनाफा देख रहे निवेशकों से लेकर
तंत्र के निचले पायदान पर बैठे भ्रष्टाचारियों तक की आंख की किरकिरी भी है। दयामनी
आदिवासियों के शोषण, विस्थापन, गरीबी और सरकारी लूटतंत्र जैसे मुद्दों पर सबसे
हठी, कर्मठ, सक्षम और इमानदार योद्धा के रूप में पहचानी जाती हैं। वो जिनके लिए
लड़ती है, उन्हीं के बीच की है, बल्कि बिल्कुल वैसी है। वो दाल-रोटी के लिए एक चाय
की दुकान चलाती है। अपने हर इंटरव्यू में वो बताना नहीं भूलती कि कैसे उसके पिता
की जमीन धोखे से छीन ली गई। फिर कैसे मजदूरी करके, घरों में बर्तन मांजकर,
फुटपाथों पर रातें गुजारकर उसने खुद को इस लायक बनाया कि वो अपने जैसे लोगों की
आवाज उठा सके। एक पत्रकार के रूप में भी उसने हमेशा ग्रामीण इलाकों के
शोषितों-वंचितों की आवाज बुलंद की। वो मनरेगा की गड़बड़ियों के खिलाफ लड़ती है, वो
ग्रामीण झारखंड के हर दर्द को दुनिया के सामने लाना चाहती है। अब जहां भी
आदिवासियों की खेती योग्य जमीन पर अधिग्रहण के बादल मंडराते हैं दयामनी को बुलाया
जाता है और वो आती है। वो ये नहीं देखती कि सिंहभूम है या संथाल परगना, रैयत मुंडा
हैं या उरांव या फिर संथाल। दयामनी अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच एक
जाना माना नाम बन चुकी है। वो लोकतांत्रिक तरीके से जनसंघर्ष में विश्वास करती है
और उसी की बात करती है। उसके पास कामयाबियों से मिला हुआ आत्मविश्वास है। उसने गुमला
और खूंटी में आर्सेलर मित्तल के ग्रीनफील्ड प्रोजेक्ट के भूमि अधिग्रहण के खिलाफ
आंदोलन को सफलता तक पहुंचाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है। कोयल-कारो और नेतरहाट
फील्ड फायरिंग रेंज के खिलाफ आंदोलनों में उसने खुद को प्रशिक्षित किया और आजमाकर
देखा। आज भी वो कहती है कि नगड़ी को लेकर मैं थोड़ी मायूस ज़रूर हूं, पर
नाउम्मीद नहीं हूं। हमें पूरा भरोसा है कि यह लड़ाई भी एक निर्णय तक पहुंचने के
बाद ही खत्म होगी। ये दीगर बात है नगड़ी के लिए लड़नेवालों को फिलहाल दयामनी
की रिहाई के लिए लड़ना पड़ रहा है।
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