अजनबी की पहचान

Wednesday, May 26, 2010

बाबू जी धीरे चलना


प्यार में संभलना थोड़ा मुश्किल होता है। और फिर ये तो कुर्सी का प्यार है। उस कुर्सी का जो साल 2003 से रुठी हुई है। इसलिए बाबूलाल मरांडी जी का मन मचल जाए तो हैरानी नहीं। इसलिए ज़रूरी है कि वो कुछ बातों का ध्यान रखें। ध्यान रखें की दिसंबर 2009 में उन्होंने बर्दाश्त कर लिया था। उस त्याग की भावना, या कहें मजबूरी की वजह से उनकी शख्सियत को जो उंचाई या जो वजन मिला था, उसे कहीं खो ना दें मरांडी।

आदिवासी होना, संथाल होना, सबसे बड़े गठबंधन के नेतृत्व मिलने की संभावना, केन्द्र के कांग्रेसियों का वरदहस्त- ये तमाम बातें बहकाएंगी। लेकिन फिर भी बाबू जी को संभलने की ज़रूरत है। क्योंकि लालची लोगों की ब्यूहरचना है। वो चाहेंगे कि कोई ऐसा मिल जाए तो उनकी नैया का खेवनहार बन जाए। वो अपनी तरफ खीचेंगे। औऱ बाबू जी कुर्सी के मोह में कुर्सी की असली मालिक जनता की नजरों में उठकर गिर जाएंगे।
झारखंड में सिर्फ एक अदद सरकार की ज़रूरत नही है। झारखंड में एक ऐसी सरकार की ज़रूरत है जिसे पर्याप्त जनादेश हासिल हो और जिसको इस बात का एहसास हो कि वो जनता की मर्जी से शासन कर रही है ना कि सत्ता के मैनेजरों और दलालों की मेहरबानी से। इसिलए ज़रूरी है कि वरमाला पहनने से पहले बाबू जी को ये देख लेना चाहिए कि माला का एक एक फूल उनके नाम का है, कहीं से चुराया हुआ नहीं।
वैसे बाबू जी कच्चे खिलाड़ी नहीं। बड़ी संभावना है कि उन्हें भटकाया जाएगा लेकिन बहुत कम संभावना है कि वो भटकेंगे। जिस वक्त जोड़-घटाव चल रहा था वो रांची में अधिवेशन कर रहे थे। अपने कार्यकर्ताओं को समझा रहे थे कि लम्बे समय की राजनीति ही श्रेयष्कर है।
कमाल है झारखंड से बाहर के लोग झारखंड को अपने इशारों पर नचाने का सपना देखते हैं। देखे भी क्यों नहीं, पहले वो ऐसा कर भी चुके हैं। लेकिन जो हो गया सो हो गया। अब ऐसा नहीं होना चाहिए। कुछ इने-गिने लोग जिन्हें जनता अपने राज्य में हैसियत गिनवाने लायक मानती है, उन्हें ये देखना होगा कि ऐसा ना हो। अरे बाहर वाले भले ना जानते हों आप तो जानते हैं कि इस मिट्टी का रंग कैसा है। काला हीरा पैदा करने वाली धरती अब कैसे आग उगल रही है ये आपसे छिपा हुआ तो है नहीं।

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