अजनबी की पहचान

Monday, May 17, 2010

ज़रूरी है झारखंड में चुनाव



नेताओं(राजनेताओं) के व्यक्तिगत स्वार्थ को हटाकर देखा जाए तो पिछले चुनाव के बाद से लेकर अब तक न तो झारखंड की जनता ने कुछ हासिल किया ना ही राजनीतिक बिरादरी ने, और आगे भी कुछ हासिल होगा, ऐसा लगता नहीं है। उल्टा राजनीतिक बिरादरी अपनी साख खोती जा रही है। राज्य एक खतरनाक राजनीतिक शून्य की तरफ बढ़ रहा है। ऐसे में जनता की ज़रूरत भी है और जिम्मेदारी भी कि वो बीच बचाव करे। उसका एकमात्र ज़रिया है चुनाव – झारखंड में चुनाव ज़रूरी है।
हमारे बहुदलीय संसदीय लोकतंत्र में सामान्य परिस्थितियों में पांच साल पर चुनाव का प्रावधान है। लेकिन परिस्थितियां सामान्य नहीं हों तो मध्यावधि चुनाव का भी प्रावधान है। झारखंड के बारे में ये स्वीकार करने में हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए कि परिस्थितियां सामान्य नहीं हैं। जिन्हें नेता होने का ज़रा भी गुमान है, उन्हें चुनाव से डरने की नहीं आंख मिलाने की ज़रूरत है। झारखंड की जनता अगर चुनाव से डरती तो बार-बार खंडित जनादेश नहीं देती। खजाने का जितना पैसा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ता दिखाई दे रहा है, चुनाव पर उससे ज्यादा तो खर्च नहीं होगा। इसलिए चुनाव के बोझ का तर्क भी बेमानी है। और सबसे बड़ी बात ये कि वर्तमान राजनीतिक हालात में चुनाव अगर समस्या का समाधान नहीं है तो इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता भी नहीं है।
दरअसल समस्या ये नहीं कि झारखंड में सत्ता हासिल करने के लिए राजनीतिक धड़ों के बीच गलाकाट प्रतियोगिता चल रही है, समस्या ये है कि इस प्रतियोगिता में आम जनता को मूकदर्शक मान लिया गया है। ऐसे में मध्यावधि चुनाव जनता को उसकी जिम्मेदारी का तगड़ा एहसास कराने में भी सक्षम होगा। मध्यावधि चुनाव लोगों को ये समझा पाएंगे कि उनके राज्य में भी परिस्थितियां सामान्य नहीं हैं। राजनीतिक दलों को भी असामान्य परिस्थितियों के प्रति सजगता दिखाने का मौका मिलेगा। चुनाव के बाद ऊल-जलूल गठबंधन करने से कहीं बेहतर होगा चुनाव से पहले ही सोच समझकर साझीदार खोज लेना। कांग्रेस-जेवीएम गठबंधन की सफलता इस बात का प्रमाण है कि जनता स्थायी विकल्पों की तलाश में है।
चुनाव की ज़रूरत सिर्फ जनता को नहीं राजनीतिक दलों को भी है। उन्हें भी नई राह खोजने की ज़रूरत है। इसमें कोई दो राय नहीं कि झारखंड के अंदर भी राजनैतिक,भौगोलिक औऱ सामाजिक विभाजन है। खंडित जनादेश की ये सबसे बड़ी वजह है। संथाल परगना और पलामू के हालत अलग हैं, कोल्हान की परिस्थियां अलग और छोटानागपुर की अलग। आदिवासियों की समस्याएं अलग हैं, गैर आदिवासी मूलवासियों की अलग और बाहर से आकर बसे झारखंडियों की अलग। हिन्दूवादी, वामपंथी, समाजवादी, सांस्कृतिक जैसी अलग-अलग विचारधाराएं एक-दूसरे से संघर्ष पर उतारू हैं। लेकिन झारखंड निर्माण के बाद का सबसे बड़ा सबक याद रखना चाहिए – विभाजन की भावना किसी समस्या को स्वीकार करने जैसी है, विभाजन अपने आप में कोई समाधान नहीं है। झारखंड की अगुवाई करने को बेताब नेताओं को एक मौका मिलना चाहिए कि वो अनेकता में एकता के सूत्र ढुंढें। तय करें की स्थायित्व हासिल करने के लिए उन्हें जोड़ना मंजूर है या स्वार्थ पूर्ति के लिए बिखंडन। चुनाव उनके लिए विकल्प खोलेगा।
व्यावहारिक तौर पर लम्बे समय की राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों को चुनाव से दिक्कत नहीं होनी चाहिए। चुनाव से दिक्कत सिर्फ उन स्वार्थी तत्वों को है जो राजनीतिक अस्थायित्व का लाभ लेते हैं। इसमें सत्ता की दलाली करनेवाले वर्ग को सबसे ज्यादा दिक्कत है जिनकी रोजी-रोटी कन्फ्यूजन, बार्गेनिंग और ब्लैकमेलिंग से चलती है। दिक्कत उन विधायकों को भी है जिन्हें चुनाव जीतने के लिए करोड़ों खर्च करने पड़ते हैं।
दुनिया की तमाम शासन प्रणालियों की तरह लोकतंत्र में भी एक से एक जटिल समस्याएं आती रहती हैं। उम्मीद की जाती है जनता के प्रतिनिधि जनता की समस्याओं के साथ-साथ व्यवस्था में पैदा होनेवाली समस्याओं का भी समाधान करेंगे। भारत की बहुदलीय व्यवस्था में स्पष्ट जनादेश का अभाव भी ऐसी ही एक समस्या है। राष्ट्रीय स्तर पर करीब एक दशक तक अस्थायित्व का दौर देखने के बाद लगता है राजनीतिक लोगों ने खंडित जनादेश के साथ चलना सीख लिया है। फिर भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि खंडित जनादेश पर टिकी शासन व्यवस्था में व्यक्तिगत महत्वकांक्षाओं के सिर उठाने की पूरी गुंजाइश है। दरअसल असली चुनौती स्थायीत्व और व्यवक्तिगत महत्वकांक्षाओं के बीच एक संतुलन कायम रखने की भी है।
तमाम ज़रूरत,तमाम जिम्मेदारी और तमाम चुनौतियों को स्वीकार करने का मतलब है – जनता को मौका देना, राजनीतिक विवेक की परीक्षा लेना। मान लीजिए और मांग कीजिए- झारखंड में चुनाव ज़रूरी है।

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