अजनबी की पहचान

Sunday, August 8, 2010

राजनीतिक मंच बिहार का

जिन्दगी ड्रामा है

प्रभुनाथ सिंह ने लालू यादव से हाथ मिला लिया है।  इस दोस्ती बहाने बिहार के दीर्घकालीन राजनीतिक परिदृश्य को समझने की कोशिश की जा सकती है।  दो दशकों से बिहार में एक ही राजनीतिक स्कूल के लोग दो धड़े बांटकर पक्ष और विपक्ष की भूमिका निभा रहे हैं। इसलिए बिहार में वास्तविक परिवर्तन की धारा समान दिशा में अग्रसर है, इसे सामंतवादी मूल्यों पर आधारित सामाजिक परिवर्तन की धारा कहा जा सकता है। लालू यादव इसके अगुवा रहे हैं और बिहार के विकास के प्रति लालू में जो उपेक्षा का भाव था, उसके पीछे एक चैंपियन का दर्प था। सामाजिक व्यवस्था की खामियों को राजनीतिक परिणाम में बदलने वाले चैंपियन का घमंड तो टूट चुका है लेकिन आत्मविश्वास अभी कायम है। प्रभुनाथ सिंह से हाथ मिलाकर उसे और मजबूती हासिल होगी। 




बिहार से बाहर के लोगों को साफ हो जाए इसलिए बता देना ज़रूरी है कि प्रभुनाथ सिंह उस पूर्व एमपी का नाम है जो संसद में लालू यादव का उन्हीं की शैली में, उनसे ज्यादा उंची आवाज़ में विरोध करता था। ये गर्मा-गर्मी सदन के अंदर हाथापाई का किस्सा भी बना चुकी है।
प्रभुनाथ सिंह मशरख के उस पूर्व विधायक का नाम है, जिसने शायद सबसे पहले लालू यादव की खुलकर मुखालफत की। नब्बे का दशक बिहार में लालू के वर्चस्व का दशक था और उस दौर में प्रभुनाथ सिंह ने हर मोर्चे पर लालू को चुनौती देने की सोची भी तो इसलिए कि मशरख और आसपास के इलाकों में इनकी दबंगई का भी अपना जलवा था। इसी दौर में हत्याओं के इल्जाम के साथ-साथ इनके राजनीतिक रसूख में भी इजाफा होता रहा। समता पार्टी के गठन में प्रभुनाथ सिंह की बड़ी भूमिका थी। प्रभुनाथ सिंह ने राजपूतों के समर्थन को अपनी सबसे बड़ी पूंजी माना है। जिस तरह से खुलकर लालू का विरोध किया, प्रभुनाथ सिंह कुछ उसी तरह से खुलकर ये स्वीकार करते हैं कि वो जातिवादी हैं। लालू से लगभग व्यक्तिगत विद्वेष जैसे हालात ने प्रभुनाथ सिंह को एक बाहुबली से राजनेता में तब्दील होने का मौका दिया। हत्या के आरोपों ने इन्हें बहुतों की नजर में शहीद का दर्जा दिला तो इसके सिर्फ दो कारण थे - लालू यादव का विरोध और राजपूत जाति का होना।

सारण-चंपारण की राजनीति में प्रभुनाथ सिंह अब एक बड़ा नाम है, हत्या जैसे संगीन आरोपों के मुकदमे अब  कॉमा में चले गए हैं। लेकिन प्रभुनाथ सिंह को बाहुबली कहलाने में भी कोई दिक्कत नहीं, क्योंकि प्रभुनाथ सिंह अब ऐसे राजनेता बन चुके हैं जिसके लिए हर तमगे का इस्तेमाल है। 

राजनीति हो अपराध काफी हद तक महत्वकांक्षाओं का खेल है। प्रभुनाथ ने कभी अपनी महत्वकांक्षा को छिपाया नहीं। आज नीतीश के खिलाफ लालू से हाथ मिलाने की वजह भी यही महत्वाकांक्षा है। खुद प्रभुनाथ सिंह के मुताबिक उनके केन्द्रीय मंत्री  नहीं बनने के पीछे नीतीश कुमार सबसे बड़ी वजह हैं। दरअसल शरद यादव को केन्द्र में रखकर देखा जाए तो नीतीश और प्रभुनाथ के बीच हमेशा ही प्रतियोगिता रही। जनता दल यूनाइटेड के अंदर नीतीश अबतक प्रभुनाथ पर भारी रहे और इसी दबाव से ऊब का नतीजा है कि प्रभुनाथ सिंह ने लालू यादव से चली आ रही दुश्मनी को दोस्ती में बदलने का फैसला किया।इसलिए कहा जा सकता है कि बिहार की राजनीति में ये मिलन जितना ड्रामेटिक लग रहा है, ये उतना ही स्वाभाविक भी है।

दरअसल बिहार में समाजिक व्यवस्था में नीचे दबे हुए तबकों की मुक्ति का सच्चा-झूठा उपक्रम चल रहा है और इसकी आड़ में खेल रही है - जेपी के छात्र आंदोलन में पैदा हुई राजनीतिक महत्वकांक्षा। महत्वकांक्षाओं के आपस में टकराने, चोटिल-घायल होने और फिर नए सिरे से उठ खड़ा होने की कहानियों का नाम है - राजनीतिक बिहार। चाहे समता पार्टी का गठन हो या जेडीयू का, या फिर लोकजनशक्ति और बिहार पीपुल्स पार्टी का निर्माण - सबके पीछे नेताओं की व्यक्तिगत महत्वकांक्षा की दास्तान है। महाराजगंज की सीट प्रभुनाथ  लालू खेमे के अपने ही एक रिश्तेदार के हाथों गंवा चुके हैं। नीतीश से बगावत के बाद लालू से बेहतर साझीदार शायद दूसरा नहीं मिलता। 

दरअसल ये "दुश्मन का दुश्मन दोस्त' वाली रणनीति का बेहतरीन नमूना है। सारण-चंपारण में ये दोस्ती बड़ा राजनीतिक हेरफेर कर सकती है। यादव और राजपूत बहुल इस इलाके में लालू-प्रभुनाथ की जोड़ी एक बड़ा किला तैयार कर सकती है। आगामी विधानसभा चुनावों के नजरिए से ये एक दिलचस्प घटनाक्रम है, जिसके नतीजों पर नजर रहेगी।
लेकिन तुरंत कोई नतीजा निकालने से पहले याद रखना चाहिए कि बिहार की राजनीतिक सक्रियता के गहरे अर्थ होते हैं।  नीतीश की ताजपोशी अपने आप में एक सबूत है कि सामाजिक गलियारों में घूमने भटकने वाले बिहार के जनमत का रुख अब आर्थिक रोशनी तलाश कर रहा है। बिहार ने नब्बे के दशक में मंडलीकरण के सामाजिक निष्कर्षों को आजमाकर क्या-क्या हासिल किया है इसपर बहस-मुबाहिसे जारी हैं और बिहार ने भूमंडलीकरण के भौतिक लाभों की तरफ हाथ बढ़ा दिया है। उम्मीद की जानी चाहिए तो बिहार के नेता नए बिहार की अपेक्षाओं को भी ध्यान में रखेंगे।

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