अजनबी की पहचान

Friday, May 14, 2010

सोचिए! फैसला लेने से पहले


ऑनर किलिंग....यानि आभिजात्य भाव की रक्षा के लिए किसी की जान ले लेना....भारत में ही नहीं....दुनियाभर के देशों में तमाम बहस-मुबाहिसों के बावजूद यदा-कदा ऐसी घटनाएं हो जाती हैं।
सवाल उठता है कि प्रगतिशील समाज में जीते हुए भी व्यक्तिगत तौर पर हम ऐसी प्रतिगामी सोच से कितना प्रभावित रहते हैं? किसी दूसरे के बारे में चर्चा करते हुए हम जिस तरह खुले दिमाग से तर्क ढुंढते और पेश करते हैं, क्या निजी जीवन में उन तर्कों को हम निभा पाते हैं? इन सवालों के जवाब में ज्यादातर लोगों के पास थोड़ी हां है और थोड़ी ना। समाज के अलग-अलग स्तर पर हां और ना के अनुपात में अंतर साफ महसूस किया जा सकता है। ज्यादा हैरानी तब होती है जब आप की समझ से समाज के समझदार तबके में आन के लिए जान लेने की घटना हो जाती है। निरूपमा पाठक के मामले में पैदा हुआ शॉक वेव इसी नजरिये से देखा जाना चाहिए। मगर सदमे की हालत में विवेक का दामन छूट जाता है। इस मामले में अनगिनत अनसुलझे सवालों को दरकिनार करते हुए लोग निष्कर्ष पर कूद रहे हैं। तथ्य ये है कि एक लड़की जो झारखंड के एक कस्बाई शहर से निकलकर दिल्ली आई थी करियर बनाने।

ऐसी पृष्ठभूमि और ऐसी उम्र में महानगर ने उसे साथी भी दिया और करियर की नींव रखने भर जगह भी। मगर उसकी जड़ें झुमरी तिलैया में गड़ी थीं। उसके अंदर और बाहर संस्कार और व्यवहार की जंग छिड़ी हुई थी। उसकी कोख में सृजन का बीज था, दिल्ली में उसका साथी और तिलैया में उसका जन्मगत समाज था। फिर क्या हुआ?कैसे हुआ? इसका जवाब ढुंढे बगैर आप फैसला कैसे सुना सकते हैं?

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