सबसे पहले जटिल होती जा रही तत्काल व्यवस्था की बात। तत्काल व्यवस्था के पहले दौर में यानि राष्ट्रपति शासन के पिछले दौर में जो कुछ हुआ था उसकी एक झलक भर मिली थी, जब राजभवन के आला अफसरान और दूसरे नौकरशाहों के यहां छापे पड़े थे। मगर उसके बाद जैसे पूरे मामले पर पर्दा सा पड़ गया। राजभवन के बहुतेरे राज़ बस राज़ बनकर दब गए। एक वक्त में ऐसा लगा जैसे कानून के हाथ सैय्यद सिब्ते रज़ी के गिरबां तक पहुंचना चाहते हैं। उनके तबादले को लेकर पीएमओ तक में तनातनी हुई । आज सवाल इसका नहीं कि राजभवन की चारदीवारी के पीछे उस वक्त जो भ्रष्टाचार हुआ उसकी सज़ा किसे मिली और कौन छूट गया। सवाल ये है कि झारखंड में एक बार फिर से राष्ट्रपति शासन लगा हुआ है, और प्रशासनिक कामकाज के नाम पर भ्रष्टाचार की बू उठने लगी है। एक हाथ से पिछले तबादलों और पिछली नियुक्तियों की अवैध घोषित करके यश कमाया जा रहा है, दूसरी तरफ नई नियुक्तियों और तबादलों का दौर भी जारी है। सुनने में आता है कि दस्तूर-ए-रिश्वत भी नई बुलंदियों पर परवाज भर रही है। मगर एक तो राजभवन की चारदीवारियां और गेट बहुत उंचे हैं, दूसरे कोई वहां झांककर देखने की ज़रूरत भी नहीं समझता, झारखंड की मीडिया भी नहीं। राजभवन के आस-पास सन्नाटा है सन्नाटा।
पिछली बार राज्यपाल का शासन चल रहा था, भाजपा सबसे ज्यादा शोर मचा रही थी। एक विशाल प्रदर्शन में यशवंत सिन्हा सरीखों ने भी लाठियां खाई थीं। मगर ये गजब राज्य है भइया। यहां राज्यपाल शासन को भाजपाई परोक्ष रूप से कांग्रेसी शासन बता रहे थे और कांग्रेसी प्रत्यक्ष, सीना ठोककर कहते रहे कि हां जी, ये हमारा शासन है और राज्यपाल जो कुछ भी करेंगे उसका फायदा भी हमें ही मिलेगा। चुनाव में कांग्रेस मजबूत भी हुई। तो क्या कांग्रेस इस बार राष्ट्रपति शासन का इस्तेमाल करके सत्ता तक पहुंचने की कोशिश में लगी है ? विधानसभा को कबतक निलंबित रखा जाएगा ? मगर किससे कौन पूछे ये सवाल ? हताशा में जीनेवाली राजनीतिक बिरादरी सवाल पूछने लायक नहीं रही। नतीजा, सन्नाटा है।
इतना सन्नाटा क्यों है भाई।
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