अजनबी की पहचान

Wednesday, July 14, 2010

प्रतीकों से खेलते नीतीश



बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को नरेन्द्र मोदी से परहेज है लेकिन आनंद मोहन से प्यार है। दोनों के राजनीतिक मायने हैं । नीतीश इन दोनों को राजनीतिक प्रतीकों के तौर पर इस्तेमाल करना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें विश्वास है कि जनता ऐसे प्रतीकों से प्रभावित होती है। सुशासन बाबू बड़ी ही चालाकी से एक प्रतीक पर हमला करके और दूसरे प्रतीक को फुसला करके दो बड़े वोट बैंकों में अपना शेयर बढ़ाना चाहते हैं और लगता नहीं कि इसमें उन्हें कोई खास दिक्कत आएगी।

सबसे पहले बात नरेन्द्र मोदी की। विकास के साथ अपनी ब्रांडिंग करवाने के शौकीन नीतीश कुमार कायदे से इस मामले में नरेन्द्र मोदी से प्रतियोगिता करते नजर आते हैं, लेकिन वो ऐसा दिखलाना चाहते हैं कि उन्हें मोदी के साए से भी परहेज है। दरअसल नरेन्द्र मोदी को गुजरात दंगों के बाद देश का एक बड़ा तबका उग्र हिन्दू राष्ट्रवाद का प्रतीक मानता है तो दूसरा हिन्दू साम्प्रदायिका को पोषक। जाहिर है देश का अल्पसंख्यक वर्ग नरेन्द्र मोदी से मोहब्बत नहीं करता। राजनीति के विश्वविद्यालय से सोशल इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल कर चुके नीतीश कुमार जानते हैं कि इस प्रतीक पर हमला करके अल्पसंख्यक वर्ग को खुश किया जा सकता है। वैसे उन्होंने बिहार में अल्पसंख्यकों को खुश रखने की तमाम कोशिशें की हैं और इसमें अल्पसंख्यक कल्याण की योजनाएं भी शामिल हैं। पूरे पांच साल में बिहार में सांप्रदायिक सौहार्द भी कायम रहा और विकास में औरों की तरह अल्पसंख्यकों को भी हिस्सा मिला ही। लेकिन इसमें जो कोर-कसर बाकी रही होगी, उसको पूरा करना भी ज़रूरी है। विकास,सुशासन और सुरक्षा भारतीय लोकतंत्र और खासकर बिहार में नए प्रयोग की तरह हैं। नीतीश उसके साथ-साथ सामाजिक न्याय और तुष्टिकरण के आजमाए हुए हथियारों को छोड़ना नहीं चाहते। लालू जैसे विरोधियों को कमजोर रखने के लिए ज़रूरी है कि जहां तक हो सके उनके हथियार उनसे छीन लिए जाएं। पंचायतों में महिला आरक्षण, आरक्षण में अति पिछड़ों को आरक्षण और दलितों में महादलित की बात- ये कुछ ऐसे प्रमाण हैं जो बतलाते हैं कि नीतीश ने विरोधी खेमें को निहत्था करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। नरेन्द्र मोदी के बहाने नीतीश ने बड़ी सफाई से अल्पसंख्यकों को ये संदेश दे दिया कि भाजपा के साथ रहते हुए भी वो अल्पसंख्यक तुष्टिकरण में भी किसी से पीछे नहीं हैं, बल्कि आगे हैं। यहां 'किसी से ' का मतलब है 'लालू से'। कांग्रेस ने चुनाव से पहले महबूब कैसर को प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी थमा दी तो क्या किया। देखो मैंने पांच साल सेवा की और नरेन्द्र मोदी को चढ़ने नहीं दिया। इसके लिए गठबंधन को भी दांव पर लगा दिया। तो कुल मिलाकर देखा जाए तो मोदी के साथ नीतीश की तस्वीर वाला विज्ञापन जिस किसी ने भी छपवाया उसने नीतीश जी का ही काम किया। नीतीश की मजबूरी है फिर भी दिल ही दिल में वो उसके शुक्रगुजार होंगे।

अब बात आनंद मोहन सिंह की। नीतीश कुमार आनंद मोहन सिंह को पटाने में लगे हैं। आनंद की भतीजी की शादी के मौके पर उनके पैतृक गांव पहुंच गए। आनंद मोहन तो डीएम कृष्णैया हत्याकांड में उम्र कैद काट रहे हैं, जेल में हैं। लेकिन उनकी पत्नी लवली ने ये ज़रूरी नहीं समझा कि अपने घर में नीतीश की अगवानी करें। दरअसल आनंद दंपति मोलभाव के मामले में शुरू से काफी निपुण रहे हैं । सन दो हजार के चुनावों में जब इन्होंने बिहार पीपुल्स पार्टी बनाई थी और नीतीश-पासवान और भाजपा के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा था तब भी इन्होंने औकात से ज्यादा सीटों पर उम्मीदवारी ले ली थी। मोलभाव की उनकी ताकत भी प्रतीक रूप में उनकी अहमियत से है। वो राजपूतों के बीच आज भी अच्छी पकड़ रखते हैं। प्रभुनाथ सिंह खम ठोककर नीतीश के खिलाफ उतर गए हैं। उनकी भरपाई किए बिना राजपूत मतदाताओं के पूरी तरह बिखरने का खतरा है। आनंद मोहन तमाम कुकर्मों के बावजूद सिर्फ इसी एक वजह से नीतीश को प्यारे लग रहे हैं। वर्ना ये ही नीतीश थे जब पटना स्टेशन पर एसएसपी कुंदन कृष्णन ने आनंद मोहन को लप्पड़-थप्पड़ कर दिया था। आनंद मोहन चिचियाते रहे, लवली आनंद घिघियाती रही और नीतीश कुमार ने बस इतना कहा कि कानून अपना काम करेगा।

बिहार की राजनीति में चंद्रगुप्त की तरह बिल्कुल सामने से नेतृत्व कर रहे नीतीश कुमार , चाणक्य जैसी कुशाग्र बुद्धि भी रखते हैं। वो दो प्रतीकों का, दो अलग-अलग तरीकों से इस्तेमाल कर रहे हैं। नरेन्द्र मोदी के नकारात्मक प्रभाव से खुद को संघर्षरत दिखाकर एक चोटिल जनभावना को बहका रहे हैं। आनंद मोहन के सकारात्मक प्रभाव का इस्तेमाल करके एक महत्वाकांक्षी जनमत को फुसला रहे हैं।

नीतीश को ये भी पता है कि चूंकि ऐसे किसी भी प्रयोग का टार्गेट ग्रुप से बाहर कोई वास्तविक नहीं होगा। नरेन्द्र मोदी पर चोट करने से अल्पसंख्यक खुश होंगे लेकिन बहुसंख्यक वर्ग में नाम मात्र की नाराजगी होगी, क्योंकि सांप्रदायिकता को अल्पसंख्यक तो अपने लिए खतरा नंबर एक मानते हैं लेकिन हिन्दु राष्ट्रवाद को अधिकांश बहुसंख्यक ज्यादा से ज्यादा एक सपना भर मानते हैं। आनंद मोहन की आपराधिक छवि कुछ सवाल ज़रूर पैदा करेगी, लेकिन सज़ायाफ्ता कैदी से वास्तविक खतरा किसी को नहीं है।

नीतीश कुमार ने निराशा के समुद्र में उम्मीदों की लहर पैदा करके जनता से वोट मांगा था। लेकिन इससे पहले उन्होंने तीस साल तक राजनीति के जोड़-घटाव भी तो सीखे थे। इस बार के चुनाव में नीतीश जब मैदान में उतरेंगे तो पांच साल का कामकाज और उनका राजनीतिक कौशल - दोनों उनके साथ होंगे। विपक्षी सेना पहले तो एकजुट हो जाए और फिर मिल-बैठकर सोचे।

2 comments:

  1. bahut badhiya .baki sab to thik hai par nitish ke dambh aur naukarsahi par nirbharta ankaro ki satyata adi wo bindu hai jo birodhio ko dikhte hai

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  2. विरोधियों के देखने लायक चीजें और भी हैं....मगर ध्यान दिलाने और टिप्पणी करने के लिए आपका धन्यवाद

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