अजनबी की पहचान

Tuesday, July 6, 2010

सेलेब्रेटी नहीं नायक है माही

मैं क्रिकेट फैन नहीं हूं, मगर धोनी का फैन हूं, क्योंकि इसने कहीं ना कहीं मेरे निजी आत्मविश्वास को एक मजबूत आधार दिया है। इसने भय-भूख-भ्रष्टाचार के बीच छटपटा रहे झारखंड को एक अच्छी, बहुत अच्छी पहचान दिलाई है। इसने बड़े ही सीधे तरीके से ये साबित कर दिया कि बेहद साधारण पृष्ठभूमि और बिना किसी भगवान-बाप(गॉडफादर) के उपलब्धियों के आसमान पर सितारा बनकर चमका जा सकता है, बशर्ते कि आपके
अंदर लगातार हर मंच पर पर्फार्म करने का माद्दा और संयम हो तो। फुटबॉल छोड़कर क्रिकेट का बल्ला थामना रणनीतिक समझदारी कही जा सकती है, लेकिन क्रिकेट की शास्त्रीय पद्धति को धता बताकर बल्लेबाज़ी के झंडे गाड़ना सिर्फ एक जुझारू नौजवान के लिए संभव था।
मैं अपने निजी अनुभव से बता सकता हूं कि माही की जादुई बल्लेबाजी के बावजूद रांची में बहुत कम लोग ये कल्पना कर पाते थे कि ये अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट खेल पाएगा। माही ने रणजी तक में धूम मचा दी थी लेकिन क्रिकेट के प्रति विद्रोही भाव की वजह से मैं अनजान था। मेकन ग्राउंड में झारखंड और कर्नाटक के बीच मैच हो रहा था। मेरे एक मित्र ने कहा कि चलो तुम्हें दिखाता हूं, झारखंड में तेंदुलकर के जोड़ का बल्लेबाज़ है। मैंने कहा होश की दवा करो। उसने अपनी आन पर ले लिया, धकियाकर मैदान तक ले गया। मगर उसकी किस्मत खराब थी। माही शून्य पर आउट हो गया। मैंने उसकी मिट्टी पलीद कर दी। उसने कहा दूसरी पारी में देख लेना, मगर मैं दूसरी पारी देखने गया ही नहीं। दूसरी पारी में माही ने चौके-छक्कों की बरसात की और नव्बे से ज्यादा रन बनाए। मेरा मित्र शाम को मुझे ढुंढता फिर रहा था। मैं मिला तो छूटते ही शुरू हो गया - अरे ये लड़का करिश्माई है। मैंने कहा - ऐसा है तो नेशनल टीम में क्यों नहीं है। उसने कहा कि सिर्फ क्रिकेट की बात होगी तो ये एक दिन नेशनल टीम में होगा। लेकिन उसके बोलने का अंदाज बता रहा था कि मिडिल क्लास झारखंडी औकात से बड़ा सपना नहीं देखना चाहता।
मेरा मित्र खुद भी क्रिकेट अच्छा खेलता था, ये माही उसे भइया-भइया कहकर बुलाता था। वो जानता था कि माही के खेल में कितना दम है, फिर भी उसकी कामयाबी के पैमाने नीचे ही रखना चाहता था। ये दो हजार दो-तीन की बात है। मैं दिल्ली आ गया, बिहार-झारखंड के रीजनल न्यूज़ चैनल में नौकरी करने।
दिसंबर 2004 में भारतीय क्रिकेट टीम बांग्लादेश दौरे पर गई। मैच के पहले वाली रात मैं शिफ्ट में था। पता लगा कल सुबह झारखंड का एक लड़का अंतर्राष्ट्रीय मैच में उतरेगा। उसके परिवार की आशाओं-उम्मीदों पर एक स्टोरी आई थी, मगर उपेक्षित पड़ी थी। मुझे लगा ये उसके परिवार की नहीं समुचे झारखंड परिवार की आशाओं उम्मीदों की कहानी हो सकती है। झारखंड को अलग राज्य बने चार साल हो चुके थे, लेकिन दिल्ली में लोग नहीं जानते थे कि झारखंड नाम का कोई राज्य भी बना है, जिसकी राजधानी रांची है। हमारे पास एक भी रेफरेंस नहीं था। उस रात मैंने रिपोर्टर को फोन किया था, ये जानने के लिए कि लड़के का बाप क्या करता है और उसका नाम क्या है। नींद में खलल ने रिपोर्टर को झुंझला दिया। उसने कहा कि ऐसी क्या खास बात है, अभी तो सिर्फ ले गए हैं साथ में। उसको खेलने भी देंगे या नहीं मालूम नहीं। फिर एकाध मैच के बाद कहां गायब हो जाएगा पता नहीं। आप ऐसे उत्साह में हैं जैसे क्रिकेट में क्रांति होने जा रही है। मैं भी नहीं जानता था कि क्या होनेवाला है। मैं तो ये भी नहीं जानता था कि बांग्लादेश दौरे पर वही लड़का गया है, जिसपर मेरे दोस्त को नाज था।
उसके बाद की कहानी दुनिया जानती है, लेकिन मैं बस इतना जानता हूं कि मिडिल क्लास झारखंडी का लड़का स्टेप बाइ स्टेप टॉप पर पहुंचा। दुनिया उसके पीछे भागने लगी तो अच्छा लगा। मगर ये डर बना रहता था कि कामयाबी इसे बिगड़ैल सेलेब्रेटी ना बना दे। कहीं झारखंड को अपनी पहचान से अलग करने में ना जुट जाए। मगर जहाज के पंछी की तरह माही लौट-लौट कर रांची आता है। माही के शौक, माही की अदाएं, माही का खेल, माही का बैचलरहुड - सबकुछ बाज़ार में बिका, लेकिन उसने अपनी मौलिकता का सौदा किसी चीज के लिए नहीं किया।
उसकी शादी भी उसकी कामयाबी और मौलिकता के बीच बेजोड़ संतुलन की बानगी रही। टीवी वालों को कानो-कान खबर पहुंची तो खेल शुरू हो चुका था। फिर चट मंगनी और पट ब्याह। जो कुछ देखने-समझने को मिला, उससे साफ है कि ये शादी का समारोह खास तौर पर माही के परिवार और निजी मित्रों के सम्मान में रचा गया था। निजता की रक्षा बड़े मनमोहक अंदाज में की।

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