अजनबी की पहचान

Saturday, July 31, 2010

ढलान पर हैं हम

प्रमोद महाजन की मौत से पहले राहुल महाजन को कितने लोग जानते थे और आज उसे कितने लोग जानते हैं ?
ये फर्क कैसे आया? क्या उसने पब्लिसिटी के लिए ड्रामा किया ? क्या उसने पब्लिसिटी के लिए ड्रग्स लिया? क्या वो पब्लिसिटी के लिए जेल गया? क्या पब्लिसिटी के लिए वो अपनी बीवियों को मारता है? क्या उसने पब्लिसिटी के लिए तलाक लिया ? बिग बॉस, स्वयंवर, छोटे उस्ताद और इमोशनल अत्याचार जैसे रियालिटी शो में उसे क्यों बुलाया जाता है ?
राहुल ने जवाब दिया है - नहीं चाहिए ऐसी पब्लिसिटी भइया...पब्लिसिटी को क्या मैं खाउंगा....पब्लिसिटी कोई एटीएम कार्ड है क्या...
दरअसल सार्वजनिक जिन्दगी में टीवी के ज़रिए सामने आ रहे इस फेनोमेना से हम बेहद सम्मोहित भी हैं और आतंकित भी। टीवी वालों को टीआरपी इसी के ज़रिए मिलती है, जाहिर है दर्शक भी इसे मज़ा लेकर देखता है। एक लड़का जो अपने पिता की चिता को अग्नि दे रहा होता है उसे हम बड़ी सहानुभूति से देखते हैं। उसकी खामोशी को परिपक्कवता बताकर उसकी पीठ थपथपाते हैं। फिर वही लड़का ड्रग्स के जाल में फंसा हुआ दिखाई देता है और उसका एक साथी ओवरडोज के कारण मारा जाता है तो हम उसे अधम जीवों की श्रेणी में डाल देते हैं। रियालिटी शो में वो लड़कियों से फ्लर्ट करता है तो उसे मनचला कहकह इर्ष्या जताते हैं। बीबी को मारता है तो उसे राक्षस कहकह धिक्कारते हैं। यहां तक है कि तलाक के बाद टीवी पर उसकी शादी करवाते हैं।
ये कैसा खेल चल रहा है। आप उसकी निज़ी जिन्दगी नुमाइश की चीज बनाकर पेश करते हैं, हम उसमें मजा लेते हैं। वो इस नुमाइश का इस्तेमाल करके आगे बढ़ जाता है, हम उससे घृणा करते हैं। राहुल महाजन आदमी से प्रोडक्ट बन चुका है। एक ऐसा प्रोडक्ट जो बाज़ार में धड़ल्ले से चल रहा है। आपने उसे प्रोडक्ट बना दिया है, अब वो खुद को कायम रखने की कोशिश करता रहेगा और आप इसमें उसका सहयोग करने के लिए बाध्य हैं।

दरअसल ये फेनोमेना बाज़ारवादी व्यवस्था की अनिवार्य परिस्थितियों की देन है। बाजार में प्रतियोगिता है, जहां कामयाबी से बढ़कर कोई चीज नहीं है। अब हर आदमी बराबर का तो है नहीं, इसलिए प्रतियोगिता में आगे निकलने के लिए शॉर्ट कट खोजे जाते हैं। मीडिया और जनसंचार में इसके लिए सबसे बड़ा सहयोगी साबित हो रहा है मनोविज्ञान । सिग्मंड फ्रायड जैसों ने व्यक्तित्व की जो परतें खोलीं हैं उसमें झांकने भर की ज़रूरत है। आप खुद-ब-खुद समझ जाएंगे कि टीवी स्क्रिन पर क्या परोसा जाए कि दर्शक चिपक जाएगा। इस निर्षकर्ष तक चाहे आप मनोविज्ञान के शोध खंगालकर पहुंचे या फिर निजी अनुभवों से सीखकर। ढलान पर पहुंचने भर की देर है, लुढ़कने वालों के काफिले सदियों से लुढ़क रहे हैं, अपने यहां जरा नई-नई बात है। अब इस लुढ़कने को आप चाहे तो आगे बढ़ना मान लीजिए या चाहे तो भाया बंदर वापस आदिम युग में लौट चलने की कवायद। वैसे हमलोग भी कमाल के बतक्कड़ हैं-लुढ़कते भी रहते हैं बतियाते भी रहते हैं।

2 comments:

  1. आपकी दुकान से एक नया शब्‍द मि‍ला बातूनी की जगह बतक्‍कड़, पर इसका अर्थ क्‍या बातूनी से अलग है डि‍यर ??

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  2. राजेय़ जी,मिजाज में ज़रूर अंतर है। टिप्पणी छोड़ने के लिए धन्यवाद।

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