झारखंड में राष्ट्रपति शासन लग चुका है। वजह, सरकार बनने की कोई भी संभावना नहीं है। विधानसभा को निलंबित रखा गया है। वो सिर्फ इसलिए कि अगर विधानसभा भंग कर दी जाती तो फालतू का हो-हल्ला मचता।
होना-जाना अब भी कुछ नहीं है, क्योंकि अब कोई भी बड़ी पार्टी जोड-घटाव के चक्कर में नहीं पड़ेगी। सब दिख रहा है कि कहां तो कीचड़ में कमल खिलता था और कहां कीचड़ में सराबोर कमल कुम्हला कर किनारे पड़ा हुआ है। जेएमएम , छोटी-छोटी पार्टियों और निर्दलियों भले अब भी ख्वाब आ रहे हों, लेकिन बिना बड़े साझेदारों का कंधा मिले ये सरकार बनाना तो दूर, दो कदम भी नहीं चल पाएंगे।
होना-जाना अब भी कुछ नहीं है, क्योंकि अब कोई भी बड़ी पार्टी जोड-घटाव के चक्कर में नहीं पड़ेगी। सब दिख रहा है कि कहां तो कीचड़ में कमल खिलता था और कहां कीचड़ में सराबोर कमल कुम्हला कर किनारे पड़ा हुआ है। जेएमएम , छोटी-छोटी पार्टियों और निर्दलियों भले अब भी ख्वाब आ रहे हों, लेकिन बिना बड़े साझेदारों का कंधा मिले ये सरकार बनाना तो दूर, दो कदम भी नहीं चल पाएंगे।
दरअसल, असंभव सी परिस्थितियों में झारखंड में नेता सरकार बनाने को उद्धत दिखते हैं तो उसकी वजह है पिछले सात साल का अनुभव। मार्च 2003 में जब बाबूलाल मरांडी को बेदखल करके मुंडा को मुख्यमंत्री बनाया गया था, उसके बाद से लगातार कुर्सी के लिए सौदेबाजी का खेल चला। फार्मूला एकदम साफ होता गया। पैसा लो - समर्थन दो। मंत्री बनो- खुलकर लूटो। खुद भी खाओ-हमें भी खिलाओ। इसमें विधायक,विधायकों के ब्रोकर, पार्टियों के फंड मैनेजर और दिल्ली के दलाल सब ने खुलकर माल बनाया। छोटा सा राज्य है, सैंया भए कोतवाल तो डर काहे का।
मगर लूट की भी एक हद होती है। और लूट की छूट तभी तक रहती है जबतक सबको माल पहुंचता रहे। मधु कोड़ा के नाम पर जो भ्रष्टाचार कांड चर्चा में है, उसने अब बहुत मुश्किल कर दी है। सारे दलाल छिपते फिर रहे हैं। रे बैन का चश्मा चमकाने वाले मंत्री जी लोग जेल में सड़ रहे हैं। उपर से तुर्रा ये कि सरकार में होने का मतलब है सिर्फ और सिर्फ पैसा उगाही।
तो बात ये है कि झारखंड की राजनीति अब पुराने रोग और नई परिस्थितियों के बीच फंस गई है। अब झारखंड को वाकई नेता चाहिए, मैनेजर नहीं। बड़े-बड़े पॉलीटिकल मास्टरमाइंड सिर मुंडाकर ओलों से बचते फिर रहे हैं। मुंडा जी को देखिए।
ऐसे में सबकी हालत इब्ने बतूता के जैसी है। जूता बगल में दबाकर तो रखा है मगर पहन नहीं सकते, क्योंकि पहने तो करता है चुर्र। और ये कोई ऐसी वैसी चुर्र नहीं है। सरकार बना भी ले तो चलेगी नहीं और चुनाव में चि़ड़िया फुर्र हो जाएगी।
तो मेरा कहना बस इतना है कि चाहे इब्ने बतूता अपना जूता बगल में दबाकर दबे पांव जाकर कहीं छुप जाए मगर चुनाव की आहट तो अब सुनाई पड़ने लगी है।
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