साम्प्रदायिकता भारत की एक मूलभूत कुंठा है जो आम भारतीय मनोजगत पर अवसाद के बादलों की तरह हमेशा मंडराती रहती है। देश के जिस हिस्से पर बादल संघनित होकर बरसता है वहां बहस खड़ी हो जाती है, झगड़े हो जाते हैं, दंगे हो जाते हैं। विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक भारतीयता इस कुंठा के साथ जीने को अभिशप्त है किन्तु इसका दूसरा पहलु भी है।
बसुधैव कुटुम्बकम किसी धर्म विशेष की इजाद हो ही नहीं सकता। दरअसल, भारत ने धर्म और आध्यात्म का फर्क सबसे पहले समझा और शायद सिर्फ भारत ने ही यह फर्क समझा। जिसे हम सनातन धर्म कहते हैं उसके पीछे की आध्यात्मिकता अपने आप में तमाम प्रश्नों का उत्तर है। भारत ने धर्म के पर्दे से झांकते आध्यात्म को देखने की समझ बनाई है और यह दार्शनिकता आम भारतीय में जेहन न्यस्त है। दरअसल, एक आम भारतीय के लिए यही सहज जीवन शैली है। बुद्ध, महावीर, ईसा मसीह, पैगम्बर मुहम्मद, नानक यहां सभी ने अपने लिए जगह बनाई और सनातन धर्म के साथ सहअस्तित्व बनाया। विविधता, विशाल आबादी और शांति (देश के स्तर पर) - यह कोई आज की बात नहीं है। विश्व मानव के लिए यही एक निमंत्रण है - जीवन को पूरा समझने और जीने का। इसीलिए दुनियाभर के मानवतावादी, विचारक, वैज्ञानिक, प्रशासक, कलाकार इत्यादि इतिहास के हर कालखंड में भारत को गंभीरता से देखते हैं। विश्व बाजार भी बार-बार भारत को गौर से देखता है। भौगोलिक तौर पर अलग-अलग विश्व के भूखंडों को सबसे पहले व्यापारियों ने ही जोड़ा। विश्व बाजार बार-बार भारत आता है। प्राचीन काल और मध्यकाल में भारत के विश्व से जो संबंध बने उनकी शुरुआत भी व्यापारियों ने की। आधुनिक विश्व में भी बाजार कभी पूंजीवादी वैश्वीकरण की हवा पर सवार होकर तो कभी ईस्ट इंडिया कंपनी की साम्राज्यवादी महत्वकांक्षा लेकर। बाजार के पीछे यहां की तमाम उम्मीदों और जरूरतों के साथ अपने तरीके से तालमेल बिठाता है। भारत की चिर कुंठाओं से संघर्ष करता है लेकिन एक मकाम पर आकर सवालों के जवाब देना बंद कर देता है। सांप्रदायिकता जैसे सवाल बाजार के लिए घातक हैं ।
दिलचस्प है कि सांप्रदायिकता कभी बाजार से या वसुधैव कुटुम्बकम की विचारधारा से नहीं टकराती। सांप्रदायिकता टकराती है सांप्रदायिकता से। यह बहुस्तरीय टकराव है। इसे आधुनिक इतिहास के बेहतरीन विश्लेषक विपिन चंद्रा की स्थापनाओं से समझा जा सकता है। कैसे भारत अपनी विविधताओं में जीते हुए सांप्रदायिकता की गुंजाइश रखता है, कैसे उसमें संप्रदायवाद की घास हमेशा उगी रहती है, कैसे उस घास के बीच-बीच में स्वार्थ की फसल उगाई जाती है, कैसे वह फसल विष का संचार करती देती है और क्यों यह विष हमारे दिमाग में भी घुलने लगता है।