अजनबी की पहचान

Wednesday, January 16, 2013

राजनीति का गुलमोहमर



जिएं तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले

मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए

धूमिल की इन पंक्तियों का अक्सर उल्लेख करते थे कामरेड मेहन्द्र। एक दिन खुद ही गुलमोहर हो गए।



एक ऐसे वक्त में जब झारखंडी समाज निजी स्वार्थ के राजनीतिक पुतलों के आगे विवश महसूस कर रहा है और ‘नेता’ शब्द तीखे व्यंग का उपकरण बन गया है, कॉमरेड महेन्द्र प्रसाद सिंह का उल्लेख बचाव की दलील की तरह काम करता है। बिडंबना है कि लोकतंत्र को घुन की तरह चाट रहे इसी ‘नेता’ तंत्र के खिलाफ महेन्द्र सिंह जीवन पर्यन्त संघर्ष करते रहे और अंतत: इसी तंत्र की साजिश के आगे खेत रहे। 16 जनवरी 2005 को जब सरिया के पास दुर्गी धवैया गांव में महेन्द्र सिंह की हत्या हुई, वो बगोदर विधानसभा सीट से अपनी चौथी जीत के लिए चुनावी सभा कर रहे थे। बिना सुरक्षा और लाव लश्कर, उस दूर-दराज के गांव में गोलियां बरसाते हत्यारों से महेन्द्र सिंह के आखिरी शब्द थे – ‘हम ही महेन्द्र सिंह हैं, बताइये क्या बात है’। इसी निडर और बेबाक अंदाज में महेन्द्र सिंह भ्रष्टाचारियों, मुनाफाखोरों और दलालों को लोकतंत्र के जनपक्ष आइना दिखाया करते थे। पंद्रह साल विधायक रहे मगर नेतागिरी के लक्षण नहीं अपनाए, फकीरों जैसी जीवनशैली को बनाए रखा। व्यवस्था में घुसकर व्यवस्था से बगावत की ये मिसाल अनूठी है। शायद इसीलिए, समर्थकों ने उनकी अंत्येष्टि पर राजकीय सम्मान नामंजूर कर दिया था । समर्थकों के सरकार विरोधी तेवर देखते हुए मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा अंत्येष्टि में शामिल नहीं हुए। बगोदर में स्वत: उमड़ आई पचास हजार की भीड़ को प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश ने उचित ही ‘गांधी के अंतिम लोगों की जमात’ कहा।

महेन्द्र सिंह ने आजादी बाद की राजनीतिक परिस्थितियों के प्रतिकार में उपजी सशस्त्र साम्यवादी क्रांति की पाठशाला में राजनीति की दीक्षा ली थी। वो नक्सलबाड़ी आंदोलन की छतरी संस्था (अम्ब्रेला) सीपीआई (एम-एल) लिबरेशन के सिपाही थे। लेकिन भूमिगत आंदोलन से लेकर संसदीय व्यवस्था के अंतिम क्षणों तक महेन्द्र सिंह विचार से ज्यादा सरोकार को महत्व देते दिखाई पड़ते हैं। महेन्द्र सिंह ने क्रांति को न तो एक फार्मूले की तरह रटा और न लागू किया। उन्होंने अपने तर्ज पर क्रांति का तर्जुमा करके दिखाया। महेन्द्र सिंह अनपढ़ किसान-मजदूर और सीधे-सादे ग्रामीण को रोजमर्रे की व्यवहारिक दिक्कतें दूर करने के लिए प्रेरित किया करते थे। छोटे-छोटे अभियान के दौरान अपने-आप ये साफ होने लगा कि कैसे लोकतंत्र में शासन और शोषण एक ही सिक्के के दो पहलु बन गए हैं और ये भी कि मजबूत चारित्रक गुणों के धनी महेन्द्र सिंह इस चक्रव्यूह में घुसकर इसे भेदने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। धीरे-धीरे महेन्द्र सिंह की चर्चा गिरिडीह, धनबाद, बोकारो और हजारीबाग के कोयला खदानों और खेत-खलिहानों में होने लगी।

बगोदर से पहले आईपीएफ(1990), फिर माले (1995, 2000) के टिकट पर महेन्द्र सिंह तीन बार विधायक चुने गए। अपना पंद्रह साल का संसदीय जीवन उन्होंने ये साबित करने में लगाया कि जनवाद और लोकतंत्र एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों के मित्र समान हैं और शत्रु भी समान। इसलिए महेन्द्र सिंह हर उस मोर्चे पर सबसे आगे खड़े दिखाई देते हैं जो अपराध, भ्रष्टाचार, मुनाफाखोरी, दमन के खिलाफ खोला गया। घुटुआ गोलीकांड, तपकारा गोलीकांड, हेसाग गोलीकांड – इन तीनों की पृष्ठभूमि में महेन्द्र सिंह की भूमिका नहीं थी, लेकिन प्रतिक्रिया में वो सबसे पहले आए और लम्बे संघर्ष किए। खुद सशस्त्र क्रांति की पाठशाला से निकले महेन्द्र सिंह अपने वक्त के गुरिल्ला संगठन एमसीसी का भी विरोध किया तो बेजोड़ नजीर पेश की। 1995 में महेन्द्र सिंह ने स्थानीय ग्रामीणों को संगठित कर एमसीसी के गढ़ झुमरा पहाड़ी पर मार्च किया। गुरिल्लाओं ने पहाड़ी के उपर से फायरिंग शुरू कर दी और महेन्द्र सिंह के एक साथी की मौके पर ही मौत हो गई। उसके बाद हमेशा वो माओवादियों के निशाने पर रहे।

झारखंड बनने के बाद महेन्द्र सिंह की राजनीतिक भावभूमि, उनकी अभिव्यक्ति और उनकी आक्रामकता नई चमक के साथ सामने आई। वो झारखंड की परंपरागत अवधारणा को नई रोशनी में देखने के पक्षकार थे। महेन्द्र सिंह ने दोनों प्रमुख गठबंधनों यूपीए और एनडीए से ही नहीं, वामपंथी पार्टियों के साथ भी खुद को अलग रखा। व्यवस्था को जनोन्मुख बनाने में चाहे जितना वक्त लग जाए, जनविरोधी शक्तियों से किसी तरह के समझौते को वो तैयार नहीं थे। 10 मार्च 2003 को विधानसभा महेन्द्र सिंह ने कार्रवाई के दौरान ही विधानसभा से इस्तीफा दे दिया। घंटे भर में विधायक आवास भी खाली कर दिया। वजह, पलामू में विधानसभा अध्यक्ष के खिलाफ उनकी पार्टी माले ने एक पोस्टर लगाया था। सदन चाहता था कि वो उसके लिए माफी मांगें। बाद में खुद विधानसभा अध्यक्ष इंदर सिंह नामधारी ने विशेष नियम का अनुसंधान कर उनका इस्तीफा नामंजूर कर दिया। महेन्द्र सिंह झारखंड विधानसभा में अकेले अजेय विपक्ष की भूमिका में रहे। उनके विरोधी भी इसका पूरा सम्मान करते थे।

क्रांति की भदेस परिभाषा देने वाले इस वामपंथी की सबसे बड़ी ताकत थी – गांव में रहने वाले आम भारतीय को लेकर एक प्रचंड आशावाद। 1978 में गिरिडीह जिले में अपने गांव खंभरा के नौजवानों को संगठित कर उन्होंने साझेदारी का मंत्र देना शुरू किया और 1982 तक खंभरा में मतदान कर ग्रामसभा की स्थापना कर ली गई। झारखंड में सामान्य पंचायत चुनाव के वर्षों पहले 1998 में महेन्द्र सिंह के विधानसभा क्षेत्र में समानांतर पंचायती राज की स्थापना हो चुकी थी। उन्हें खुद को मनसा-वाचा-कर्मना आम आदमी बनाए रखा। दो कपड़े – वो भी सस्ते, एक पतला बिस्तर, मांड़-भात-चोखा और किताबें – निजी जीवन में महेन्द्र सिंह इससे आगे नहीं बढ़े।

आज के संदर्भ में, महेन्द्र सिंह की शहादत को याद करते हुए, धनबाद जिला कांग्रेस कमिटी हरिजन प्रकोष्ठ की तरफ से आयोजित श्रद्धांजलि सभा में पारित प्रस्ताव उल्लेखनीय हो जाता है – ‘’ हमारे अवचेतन में नेता की जो तस्वीर गढ़ी हुई है उसका ही साकार रूप स्वर्गीय महेन्द्र सिंह थे।“


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